संसार में जीवों के प्रति संवेदना रखने वाला ही अपनी आत्मा में कोमलता ला सकता है- परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब

धमतरिहा के गोठ
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 संजय छाजेड़ 

परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी  महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 15 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि प्रभु ने कैवल्यज्ञान की प्राप्ति के बाद पहला कार्य चतुर्विध संघ की स्थापना करते है। परमात्मा ने अपनी परीक्षा तो प्राप्त कर ली, किंतु फिर भी संघ की स्थापना का कुछ उद्देश्य होता है। परमात्मा चाहते है कि शाश्वत सुख को प्राप्त करने के लिए संघ की जरूरत होती है। इसलिए परमात्मा चतुर्विध संघ की स्थापना करते है। धर्म चाहे कोई भी हो किंतु सभी धर्म की गंगोत्री तो स्वयं परमात्मा ही है। और परमात्मा ही हमे परमात्मा बनने की ओर अग्रसर करा सकते है। उत्तराध्ययन सूत्र को बड़ी श्रद्धा और आस्था से सुनना है और जीवन में उतारने का प्रयास करना है तभी आत्मा अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकती है। इस सूत्र के माध्यम से परमात्मा सबसे पहले पाप से आत्मा को हल्का करने का अर्थात पाप कार्य छोड़ने का उपदेश देते है। परमात्मा का कैवल्यज्ञान ऐसा होता है जिसमें कोई कमी नहीं निकाला जा सकता। हम सुनते तो परमात्मा की है किंतु जीवन अपने हिसाब से व्यतीत करते है। ऐसा करने वाला जीव कभी भी परमात्मा के जैसा नहीं बन सकता परमात्मा की कृपा का पात्र नहीं बन सकता। धर्म श्रवण का उद्देश्य अपने जीवन में अनुकूल परिवर्तन लाना होता है। जीवन का लक्ष्य प्रभावित करने वाला नहीं बल्कि प्रकाशित करने वाले और परिवर्तित करने वाले को पाने के लिए होना चाहिए। किसी के चमत्कार को देखकर प्रभावित तो हो सकते है किंतु इसके जैसा बनने की चेष्ठा नहीं होना चाहिए। किंतु जिसके कारण हमारा जीवन प्रकाशित होता है । जिसके कारण हमारी आत्मा का विकास हो सके, जो हमारे जीवन को ज्ञान से प्रकाशित कर सके। पहला लक्ष्य उसे प्राप्त करने का होना चाहिए। इसके साथ ही जो हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला दे, जिनके संपर्क में आकर हमारा जीवन संस्कारमय हो जाए। उसे परिवर्तन कहते है। जिनके सानिध्य में आने से जीवन में इस प्रकार का सकारात्मक परिवर्तन हो। आत्मा का वास्तविक लक्ष्य उसे पाने का होना चाहिए। जिस प्रकार आहार के बिना शरीर नहीं चल सकता उसी प्रकार जिनवाणी आत्मा का आहार है जिसके बिना आत्मा का विकास नहीं हो सकता।

18 पाप स्थानकों में पहला पाप है प्राणतिपात। इसका अर्थ है किसी जीव को मार देना अर्थात जीवन छीन लेना ही हिंसा है। भाव-श्रावक को हमेशा अपनी मृत्यु सामने दिखाई देनी चाहिए । क्योंकि अगर हम पाप कार्य करने लग जाए या कोई ऐसा कार्य करने लग जाए जिससे आत्मा का पतन हो जाए तो उस समय अपनी मृत्यु का भान करके उस पाप से बचा जा सकता है। एक श्रावक हमेशा ऐसा कार्य करता है जिससे उनकी मृत्यु भी महोत्सव बन जाए। हम अपने जीवन काल में शरीर को सजाने के लिए और संसार को दिखाने के लिए न जाने कितना पाप करते है किंतु ये तो अल्पकाल के लिए होता है और अंत में दुख और पाप का ही कारण बनता है। इसके स्थान पर अगर हम आत्मा को सजाने और परमात्मा को रिझाने का प्रयास करे तो अनंत काल के लिए अनंत सुख को प्राप्त किया जा सकता है। जब आत्मा कठोर हो जाए तो जीवन में हिंसा बढ़ जाती है इसलिए आत्मा को कोमल बनाने का प्रयास करना चाहिए ताकि हिंसा से बच सके। जीवन में हमेशा परिवर्तन की ओर आगे बढ़ना चाहिए। अर्थात आत्मा कठोरता से कोमलता की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर बढ़े इस प्रकार का परिवर्तन लाने का प्रयास करना चाहिए। संसार में जीवों के प्रति संवेदना रखने वाला ही अपनी आत्मा में कोमलता ला सकता है और हिंसा से दूर हो सकता है।

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