संजय छाजेड़
परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 21 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि चातुर्मास काल में सत्संग के समागम में एक विशेष प्रयोजन से जुड़े है। दो चीजे होती है जीवन में विकास करना और जीवन का विकास करना। जीवन में विकास करने पर अधिकतम वह एक ही भव के लिए होता है। किंतु जीवन का विकास भव भव का विकास होता है। जीवन में विकास शरीर के लिए होता है जबकि जीवन का विकास आत्मा के लिए होता है। परमात्मा कहते है कि एक बात इतना पुरुषार्थ कर लो कि जीवन का विकास हो जाए फिर सभी लक्ष्य सरलता से प्राप्त हो सकते है।
18 पाप स्थानकों में पहला अध्याय है विनय श्रुत। इस सूत्र का *दूसरा अध्याय है परिषह प्रविभक्ति।
परिषह - प्रतिकूल परिस्थिति का आना। कष्ट, दुख या पीड़ादायी परिस्थिति का आना। प्रतिकूल परिस्थिति का आत्मा में संयोग होना। जीवन के लिए हर संयोग परिषह होता है।
प्रविभक्ति - इसका अर्थ है विजय पाना। परिषह पर विजय पाना प्रविभक्ति कहलाता है। किसी व्यक्ति, वस्तु से प्रभावित न होना ही जय-विजय कहलाता है। जय एक युद्ध है और उस युद्ध पर सफलता प्राप्त करके आनंद मनाना विजय है। किसी भी परिस्थिति पर जब स्वीकार का भाव आ जाए तो वह आनंद का कारण बन जाता है।
जीवन में दुःख आने का कारण मन के अनुसार परिस्थितियों का न होना है। अर्थात परिस्थितियों को स्वीकार न करना ही दुख का कारण है । स्वीकार भाव सुख का कारण और प्रतिकार भाव दुख का कारण बनता है। हम परिस्थिति को नहीं बदल सकते किंतु उसे स्वीकार किया जा सकता है। और परिस्थिति को स्वीकार करने वाला ही सुखी हो सकता है ।
संसार में दो प्रकार के लोग होते है दुर्जन अर्थात अवगुणी तथा सज्जन अर्थात गुणी । दुर्जन और सज्जन दोनों के साथ एक जैसा व्यवहार करना चाहिए। ज्ञानी कहते है कि गुणी से मिलने पर स्वयं का गुण बढ़े और अवगुणी से मिलने पर उसे प्रभावित करके उसके जीवन को बदलने का पुरुषार्थ करना चाहिए। परिस्थिति के अनुसार स्वयं को बदलने का पुरुषार्थ ही सुख का करना बनता है। जिस सुख के बाद भविष्य में पीड़ा बढ़े या दूसरे का सुख कम हो या दूसरों का दुख बढ़े ऐसे सुख को छोड़ देना चाहिए। जिस पीड़ा के बाद सुख प पुरस्कार मिले या या सुख बढ़े। इसी को परिषह जय कहते है। शरीर का राग कम करने वाला ही आत्मा का विकास कर सकता है।
18 पाप स्थानकों की यात्रा हम अनंतकाल से कर रहे है। किंतु अब हमें पाप कार्यों को रोकने का प्रयास करना है।
तीसरा पाप है अदत्तादान-अर्थात चोरी करना।
अ - नहीं।
दत्त - दिया हुआ
आदान - ले दिया।
नहीं दिए हुए को ले लेना अदत्तादान कहलाता है।
चोरी दो प्रकार से होती है।
पहला - बहु सम्मत चोरी। अर्थात ऐसी चोरी जो अधिकांश लोगों द्वारा किया जाता है। किंतु सामान्यतः इसे हम चोरी नहीं मानते।
दूसरा - असम्मत चोरी। अर्थात ऐसी चोरी जिसे चोरी ही माना जाता है।
चोरी दो तरह से होती है।
दिखाई देने वाली वस्तुओं की चोरी। किसी भी सांसारिक वस्तुओं को चोरी करना।
न दिखाई देने वाली चोरी। इसे कामचोरी भी कह सकते है। अपने दायित्वों और कर्तव्यों का निर्वाह न करना न दिखाई देने वाली चोरी है।