परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि आज हमें जीवन के रहस्य को जानना और समझना है कि मैं कौन हूँ? वास्तव में जिस हाड़ मांस के शरीर को अपना मानते है क्या वो सच में मेरा है? परमात्मा कहते है शरीर में सुख और दुख की अनुभूति खोजने वाला अज्ञानी होता है जबकि आत्मा में सुख दुख खोजने वाला ज्ञानी होता है। हम हर भव में पाप करते आए है। पाप का फल दुर्गति, दुख और अशांति के रूप में आने वाले भव में प्राप्त होता है। हमें विचार करना है कि क्या हमने पाप कार्य छोड़ दिया है? अगर नहीं छोड़ा है तो चिंतन कीजिए आने वाले वाले भव में उस पाप कर्म का कैसा फल मिलेगा? पाप को छोड़ना बहुत सरल है लेकिन आवश्यकता है उचित पुरुषार्थ करने की। परमात्मा ने फरमाया कि पाप बहुत भारी और पीड़ादायक है अगर ये जीव पाप से घृणा करने लग जाए पाप से डरने लग जाए, पाप कर्म के फल का चिंतन करने लग जाए तो पुरुषार्थ पूर्वक इसे छोड़ा जा सकता है। एक रुमाल हमारे आंसुओं को पोंछ देता है किंतु सदगुरु हमारे आंसू को कारण को पोंछने का कार्य करते हैं। इसलिए हमारे जीवन में एक सदगुरू अवश्य होना चाहिए। जो हमारे जीवन में पाप कार्यों से हमे दूर कर सके। जीवन में सामग्री, पद, प्रतिष्ठा, पैसा और वैभव को अगर हम सुख का कारण मानते है तो इसका अभाव दुख का कारण बन जाता है। ज्ञानियों का कहना है कि सुख दुख का कारण इच्छा है। इच्छा होती है और वह पूरी नहीं हो तो वह दुख का कारण बन जाता है। किंतु अगर इच्छाओं को कम कर ले या रोक ले तो उसके पूरी होने या न होने का प्रश्न ही नहीं होगा। अर्थात दुख ही नहीं होगा। व्यक्ति या वस्तु से सुख दुख नहीं आता। सुख दुख का कारण हमारी इच्छा है। परमात्मा ने फरमाया कि जहां से दुख की उत्पत्ति होती है और वहीं से सुख की उत्पत्ति होती है। अर्थात सुख और दुख दोनों अंदर से आता है। भगवान महावीर का मार्ग ही आत्मा के ज्ञान का मार्ग है। भगवान महावीर का मार्ग सत्य और शांति का मार्ग है। महावीर के बताए मार्ग पर चलने वाला आत्मा की वास्तविकता को जान सकता है। और आत्मा को जानने वाला ही आत्मविकास कर सकता है। जिस प्रकार ईमानदारी, भूख, सुख और दुख दिखाई नहीं देता इसकी केवल अनुभूति होती है उसी प्रकार आत्मा भी दिखाई नहीं देती इसकी केवल अनुभूति होती है।
ज्ञानियों का कहना है हम जीवन में दो प्रकार का कार्य कर सकते है। भोग का और योग का। भोग के लिए तन, धन और स्वजन तीनों की जरूरत होती है। तीनों में से एक की कमी हो जाए तो भोग संभव नहीं है।और भोग का मार्ग आत्मा के पतन का मार्ग है। जबकि योग के लिए हमें सदगुरु की जरूरत होती है जो आत्मा का साक्षात्कार करा सके। हमें आत्मविकास का मार्ग बता सके। जो हमें शरीर और आत्मा का भेद बता सके। इस ज्ञान को जानने वाला व्यक्ति आत्मा के विकास के मार्ग की ओर अग्रसर हो जाता है। वास्तव में शरीर से ज्ञान नहीं होता अर्थात ज्ञान का केंद्र शरीर नहीं है। ज्ञान आत्मा में होता है। आत्मा की तरह ज्ञान भी शाश्वत है। जबकि शरीर का स्वभाव तो सड़न, गलन का होता है। किसी भी भव में जीव के आयु की समाप्ति के साथ ही शरीर भी समाप्त हो जाता है। किंतु आत्मा कभी नहीं बदलती। और आत्मा को मिला हुआ ज्ञान भी नहीं बदलता। जिस प्रकार एक सोने के खदान से निकले खनिज में से अशुद्ध तत्वों को अलग करने के बाद शुद्ध सोना प्राप्त किया जा सकता है। उसी प्रकार आत्मा से सभी प्रकार के भाव को अलग करने पर शुद्ध आत्मा को प्राप्त किया जा सकता है। और शुद्ध आत्मा ही हमारी वास्तविक पहचान है। हमारे शरीर का संचालन करने वाली आत्मा बैटरी के समान है।