शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है- परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब

धमतरिहा के गोठ
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 संजय छाजेड़ 

परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी  महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 26 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि हे चेतन तेरा सुख तेरे ही अंदर है ऐसा परमात्मा ने बताया है। इसलिए हे चेतन तू निज अर्थात अपने अंदर देख अपने अंदर आ। अपनी चेतना को जगा ले । पुण्योदय से मानव जीवन मिला है इसका उपयोग पुण्य कार्य में ही कर। इस तरह जन्म मरण का क्रम न जाने कब से चल रहा है। अब इसे तोड़ने का प्रयास कर। दृष्टि का सम्यक उपयोग करके अपने मिथ्यात्व का नाश कर। राग द्वेष को तोड़ने का प्रयास कर। तभी ये जीव संसार से मुक्त होकर सिद्ध बुद्ध हो सकता है।अपने शुद्ध आत्मा को खोजने का प्रयास कर। क्योंकि शुद्ध आत्मा ही परमात्मा है। और शुद्ध स्वरूप को पाने के लिए अपने अंदर ही खोजना पड़ेगा। क्योंकि बाहर के संसार में केवल संसार को बढ़ाने वाले साधन ही है। जिस वस्तु का वर्तमान में सदुपयोग नहीं होता वह वस्तु भविष्य में भी नहीं मिलता। इसलिए जो मिला है उसका सदुपयोग करना चाहिए। इसी तरह मानव जन्म का अगर हम सदुपयोग करेंगे तो भविष्य में पुनः मानव जन्म के साथ साथ जिनशासन मिल सकता है। और कल्याण के मार्ग पर आगे बढ़ सकते है। जिस प्रकार गंदे कपड़े को हाथ के माध्यम से साबुन से संघर्ष कराकर साफ किया जाता है। उसी प्रकार आत्मा रूपी कपड़े को शरीर के माध्यम से तप रूपी साबुन से संघर्ष कराकर साफ अर्थात शुद्ध करना है। भगवान महावीर ने दीक्षा के बाद साढ़े बारह वर्ष तक अपने शरीर को तप से तपाकर केवलज्ञान प्राप्त किया। ज्ञानी कहते है परमात्मा की पूजा करना आसान है, किंतु अपने कषायों पर विजय पाना कठिन है। जीवन में संघर्ष करने वाला ही सफलता के शिखर पर पहुंचता है। ऐसे ही आत्मा के विकास के लिए तप रूपी संघर्ष करने वाला जीव ही परमात्मा बनता है। परमात्मा कहते है संसार के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष कम करना पड़ता है किंतु संसार से मुक्ति के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए संघर्ष अधिक करना पड़ता है। हमारे जीवन में ऐसा संघर्ष हमेशा चलते रहना चाहिए जिससे कुछ न कुछ आत्मा का विकास होता रहे। जीवन में ऐसी चुनौती स्वीकार करना चाहिए जिससे मोक्ष रूपी सफलता मिल सके। 


22 परिषह में नवम है आक्रोश परिषह - कोई हमे नुकसान देकर आक्रोशित करने का प्रयास करता है उस समय समता में रहना ही आक्रोश परिषह कहलाता है। ज्ञानी कहते है आक्रोशित होने वाला बीमार या कमजोर माना जाता है।

दसवां है रोग परिषह -  अशाता वेदनीय कर्म के उदय से शरीर में बीमारी आती है। दवाई का उपयोग केवल आत्मसंतुष्टि के लिए करते है। अशाता कर्म का समाप्त होने पर रोग भी दूर हो जाता है। जब जीवन में शाता हो तब दूसरों को शाता देने का प्रयास करना चाहिए। ताकि जीवन में अशाता ही न आए। दूसरों को प्रसन्न देखना या प्रसन्न करने का प्रयास करना संसार का मार्ग है जबकि स्वयं प्रसन्न होना मुक्ति का मार्ग है। हर समय कर्म का उदय चलते रहता है। 

18 पाप स्थानकों में चौथा है मैथुन पाप- मैथुन का अर्थ है अब्रम्हचर्य। परमात्मा कहते है शुद्ध ब्रम्हचर्य जीवन की सबसे अमूल्य संपत्ति है। ब्रम्हचर्य का पालन करने वाले को देवता भी नमन करते है। अब्रम्हचर्य का पाप केवल काल्पनिक सुख है। वास्तविक सुख वासना से प्राप्त नहीं हो सकता। यही संसार की वास्तविकता है। वासना का पाप  जीवन में सभी मर्यादा को तोड़ देता है। और मर्यादा को तोड़ने वाला अनंतकाल के लिए संसार भ्रमण बढ़ा लेता है।

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