पतन के राह पर ले जाने वाला कभी मित्र नही हो सकता-परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरिहा के गोठ
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 संजय छाजेड़ 

परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि आंखे बंद करके परमात्मा का स्मरण करते हुए समाधिमरण की भावना का ध्यान करना चाहिए। क्योंकि समाधिमारण ही हमे परमात्मा तक पहुंचा सकती है। देखकर और समझकर भी न समझना ही नासमझी है। दोष और द्वेष के दूर होते ही हम गुणानूरागी बनते है और गुणानूरागी बनते ही जगत के सभी जीवों के प्रति मैत्री भाव आ जाता है। परमात्मा सबकुछ देखते है और समझते है इसलिए सुखी है। हम सबकुछ देखते तो है लेकिन समझते नही इसलिए दुखी है। हमने स्वयं को समझदार बनाने के लिए जितने भी प्रयास किए उससे हमारी नासमझी ही प्रकट होती है। मैत्री या मित्रता में केवल परोपकार की भावना होती है। अपनी समझदारी का उपयोग दूसरो का भला करने में करना चाहिए। पाप कार्य हमेशा छुपाकर ही किया जाता है। लेकिन परमात्मा से कुछ भी छुपा नहीं रह सकता। सुख में तो सभी साथ देते है। लेकिन जो यह सोचकर साथ दे की मेरे होते हुए इसे कोई दुख न हो, वह मित्र होता है। पतन के राह पर ले जाने  वाला कभी मित्र नही हो सकता। मित्र हमेशा कल्याणकारी होना चाहिए। हम अपने अहंकार के कारण अपनी गलतियों को सुधारना नही चाहते। स्वार्थ की पूर्ति के लिए कभी मित्रता नही करना चाहिए। हम अपने आने वाली पीढ़ी को बहुत धन दौलत देते है साथ ही परंपरा से चली आ रही दोष और द्वेष भी दे देते है । और ये सब संसार को बढ़ाने वाला अर्थ पतन की ओर ले जाने वाला होता है। इसके स्थान पर अगर हम एक गुरु और एक प्रभु विरासत में दे दे तो अपने आने वाले भव को सुधारा जा सकता है। हमारा भला चाहने वाले का बुरा चाहना कृतध्नता कहलाता है। जबकि उसके प्रति हमेशा कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। कसौटी हमेशा मूल्यवान सोने की होती है। जो सोना शुद्ध होता है वह प्रत्येक कसौटी पर खरा उतरता है। हमे भी जिनशासन की कसौटी पर खरा उतरना है। कसौटी सोने की शुद्धता को प्रमाणित करता है और परमात्मा वास्तविकता को प्रमाणित करते है। हमे अपने भीतर आकर तिरने का प्रयास करना है। उपकारी लोगो में माता पिता और गुरु का उपकार सबसे अधिक होता है। इनके प्रति हमेशा कृतज्ञता का भाव रखना चाहिए। क्योंकि माता पिता के कारण ही हमे संसार में आने का सौभाग्य मिला और गुरु के कारण संसार को समझने और परमात्मा को जानने का अवसर मिला।

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