परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 28 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि हे चेतन पूरा संसार तो कई बार घूम लिए और क्या घूमना बाकी है? कभी नरक में भूख,प्यास को सहकर, कभी सर्दी,गर्मी को सहकर जीवन बिताया है। फिर भी हर बार शरीर ही समाप्त हुआ, क्योंकि आत्मा तो अजर अमर है। हे जीव उसके बाद तू कभी पशु बनकर तो कभी पंछी बनकर तो कभी कुछ और बनकर न जाने कितने युगों तक इस संसार में भटकता रहा हुआ। तो कभी देवगति में भोगों को भोगकर फिर इन्हीं गतियों में आया। न जाने जन्मोंजन्म कितना पुण्य किया होगा कितना पुण्योदय हुआ होगा तब तुझे ये मानव तन मिला साथ ही दुर्लभ जिनशासन भी मिला। हे चेतन अब चेत जा। अब अगर तू आत्मा के बारे में नहीं सोच पाया, आत्मविकास के लिए पुरुषार्थ नहीं कर पाया। तो आत्मा का उद्धार संभव नहीं है। परमात्मा कहते है मानव जीवन ही विकास के मार्ग का प्रारंभ है। यहीं से पुरुषार्थ करके तू आत्मा को परमात्मा बना सकता है। हमारा मन हमेशा हमे ठगने का कार्य करता है। हम मन के कहे अनुसार कार्य करते रहते है तो परिणाम स्वरूप कभी शरीर बीमार हो जाता है तो कभी असंतुष्ट हो जाता है ।मन के अनुसार कार्य करते रहने से शरीर की इंद्रिय तो सुख का आभास प्राप्त करती है लेकिन आत्मा को वास्तविक सुख नहीं मिल पाता। अब मानव जीवन में हमे अपने मन को ठगने का प्रयास करना है । इस मन को आत्मा की वास्तविकता को बनाना है।
उत्तराध्ययन सूत्र का चौथा अध्याय है असंस्कृत या असंस्करित । संस्कृत या संस्करित का अर्थ है जिसे जोड़ा जा सके जिसे मिलाकर एक किया जा सके या बदला जा सके या जिसे सुधारा जा सके। इसी प्रकार असंस्करित का अर्थ है जिसे जोड़ा न जा सके या जिसे सुधारा न जा सके या जिसे न बदला जा सके। असंस्करित का अर्थ है जो टिकने वाला नहीं है अर्थात जो नाशवान है या जिसका समापन होना निश्चित है। उत्तराध्ययन सूत्र के 36 अध्ययन में सबसे छोटा अध्ययन यही है। दुनिया में बहुत सारी ऐसी वस्तुएं है जिसमें सुधार किया जा सकता है और वैसी भी वस्तुएं भी है जिसमें सुधार नहीं किया जा सकता। घर, दुकान, मशीन, आभूषण, गाड़ी ये सभी वस्तुएं है जिन्हें खराब होने के बाद सुधार किया जा सकता है। किंतु समय ऐसी चीज है जिसे सुधारा नहीं जा सकता अर्थात बदला नहीं जा सकता या वापस नहीं लाया जा सकता। जीवन असंस्करित होते जा रहा है। जीवन जो बीत गया उसमें बदलाव लाना असंभव है। अर्थात चाहकर भी उसे बदला नहीं जा सकता। जीवन का कभी जीर्णोद्धार नहीं हो सकता। क्योंकि जीवन का बीता हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। तीन चीजें है जीव, जीवन और जीवन में मिलने वाली सामग्री। इन तीन चीजों में हम सामग्री के नष्ट होने पर उसे बदलने का ध्यान रखते है। किंतु हरपल जीवन नष्ट हो रहा है उसे बदलने का या सुधारने का ध्यान हमे नहीं आता। जीवन से बहुत सारी चीजें जा रही है उसका हमे पता है किंतु जीवन कहां जा रहा है उसका पता नहीं। संसार की सभी वस्तुओं का अंत निश्चित है उसका हमे पता है और उसका अंत होने से पहले ही उपयोग भी कर लेते है। कभी न कभी जीवन का अंत होगा ये पता है। लेकिन फिर भी इसका ध्यान नहीं रखते है। और इसका सदुपयोग भी नहीं करते है। परमात्मा कहते है जीवन अर्थात शरीर बचने वाला नहीं है किंतु पुरुषार्थ ऐसा करना है कि आत्मा बच जाए अर्थात आने वाला भव सुधर जाए। तभी हम कह सकते है आत्मा बच गया। जीव अर्थात आत्मा शाश्वत है लेकिन जीवन और जीवन में मिलने वाली सामग्री नाशवान है। सामग्री चला जाए तो पुरुषार्थ पूर्वक उसे वापस लाया जा सकता है। किंतु जीवन चला जाए तो उसे वापस नहीं लाया जा सकता। पूरे जीवन भर हम जीवन के लिए अच्छी सामग्री की योजना बनाते है किंतु कभी अच्छे जीवन के लिए योजना नहीं बना पाते। हम अपना जीवन साधन, सामग्री और संपत्ति प्राप्त करने के लिए नष्ट कर देते है। किंतु ये सब मिलकर भी नष्ट होते हुए जीवन को नहीं बचा पाता। इसलिए हे चेतन तू जीवन को सफल बनाने की तैयारी कर ले आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त कर ले। हमें इस जीवन में परमात्मा के ज्ञान रूपी गंगा में स्नान करके आत्मा को शुद्ध बनाने का प्रयास करना है।
18 पाप स्थानकों में पांचवां परिग्रह पाप है। जीवन में जितनी भी लड़ाई होती है उसका कारण परिग्रह होता है। परी अर्थात चारों ओर से, ग्रह अर्थात ग्रहण करना। इस प्रकार परिग्रह का अर्थ है चारों ओर से ग्रहण करना। जहां से जैसे भी मिले उसे ले लेना या ग्रहण कर लें। आवश्यकता हो या न हो उसे ले लेना परिग्रह कहलाता है। परिग्रह एक व्यसन के समान है ।परिग्रह दो प्रकार का होता है द्रव्य परिग्रह और भाव परिग्रह।
द्रव्य परिग्रह का अर्थ है संसार की वस्तु अर्थात सामग्री को लेना।
भाव परिग्रह का अर्थ है सामग्री में मुग्ध हो जाना या उस पर आसक्त हो जाना या उसे पाने के लिए पागल हो जाना।
ज्ञानी कहते हैं हम जीवन भर इन परिग्रहों को पाने के लिए प्रयास करते है । किंतु इसमें कोई सुख नहीं है। बल्कि ये परिग्रह दुख का कारण बन जाता है। जबकि वास्तविक सुख आत्मा के विकास में है। अगर हमें परिग्रह करना है तो आत्मा के विकास के लिए परमात्मा के गुणों का, आचरणों का परिग्रह करना चाहिए। ताकि आने वाले भव में हमारी आत्मा भी परमात्मा बन सके।