परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 14 अगस्त 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि मैं अर्थात मेरी आत्मा ज्ञानानंद और सहजानंद स्वभावी है। मैं रंग भेद से भिन्न हूँ। मै अखंड रंग में रंगने वाला हूँ। मैं ही अपने कर्मों का कर्ताधर्ता हूँ। अर्थात मैं ही स्वयं के प्रत्येक कर्मों का भोगी हूँ। मै सिद्ध बुद्ध होने वाली आत्मा हूँ। लेकिन अपने कर्मों के कारण अब तक संसार ने भटक रहा हूँ।
इस चातुर्मास काल में हमे परमात्मा से अर्थात परमात्मा के ज्ञान से जुड़ने का प्रयास है। वास्तव में परमात्मा का ज्ञान ही परमात्मा है। परमात्मा के ज्ञान को हम जितना जानते जाएंगे। परमात्मा से उतना ही जुड़ते जाएंगे। परमात्मा के ज्ञान को समझने के बाद परमात्मा को पाने के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ेगा। जो जीव जितना सम्यक पुरुषार्थ करेगा वह परमात्मा का उतना ज्ञान प्राप्त कर सकता है। और ज्ञान प्राप्त करके अनंतकाल तक सुख प्राप्त कर सकते है। संसार का प्रत्येक जीव सुख पाना चाहता है।
परमात्मा कहते है सुख प्राप्त करने के चार शर्त है।
पहला संपूर्ण सुख - हम संसार में ऐसा सुख पाना चाहते है जिसमें कहीं भी कोई भी दुख न आए। अर्थात जहां केवल सुख ही सुख हो। कहीं दुख का नाम भी न हो।
दूसरा सतत सुख - प्राप्त होने वाला सुख लगातार चलते रहे। निरंतर सुख की प्राप्ति होनी चाहिए। कभी ये समाप्त न हो।
तीसरा सर्वोत्तम सुख - सर्वोत्तम सुख अर्थात सबसे अच्छा सुख। अर्थात हमें जो सुख मिल रहा है वो सर्वश्रेष्ठ होना चाहिए।
चौथा स्वाधीन सुख - ऐसा सुख जिसे कोई और छीन न सके। अर्थात ऐसा सुख जिसे चाह कर भी कोई दूसरा ले न सके।
परमात्मा कहते है हमें इन चार प्रकार के सुख को प्राप्त करने के लिए पुरुषार्थ करना चाहिए। किंतु ऐसे सुख को प्राप्त करने के लिए हम प्रयास ही नहीं करते है। संसार में जीव आतुर है अर्थात अशांत, दुखी, आकुल व्याकुल है। वो दूसरों को भी यही सब दे सकता है। इसलिए संसार में सुख खोजने के स्थान पर अपने अंदर सुख खोजने का प्रयास करना चाहिए।
18 पाप स्थानकों में हम कषाय को समझने का प्रयास कर रहे थे। इसमें सातवें नंबर का पाप है मान कषाय ज्ञानी कहते है 18 पाप स्थानकों में नाम एक ऐसा पाप है जिसमें कभी बुरा नहीं लगता। कोई हमें मान दे तो हमे सुख लगता है। जब तक ऐसा चलते रहेगा, तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता। क्रोध कषाय वृक्ष के समान है। और शेष तीन कषाय मान, माया, लोभ ये उसकी जड़ के समान है। संसार के प्रत्येक जीव में मान कषाय चल रहा है।
वास्तव में मान है क्या? ये समझकर ही इसे दूर करने का प्रयास कर सकते है। ज्ञानी कहते है मान अर्थात अपने आप के बारे में कुछ कम या कुछ ज्यादा कल्पना के आधार पर मान लेना ही मान है। अपने बारे में बिना किसी आधार के कुछ भी मान लेना ही मान कषाय है। मान कषाय में कल्पना होती है ये वास्तविकता से दूर होता है। यही कल्पना ही पाप बंध का कारण बनता है। जीवन में जब तक मान कषाय हमें जहर नहीं लगेगा तब तक इसे छोड़ना बहुत कठिन है। मान कषाय 10वें गुणस्थान के अंत तक चलता है। हमारा पतन न हो हम कुसंस्कारी काम न करे। अर्थात हम न करने योग्य काम न करे। इसलिए जीवन में स्वाभिमान होना चाहिए। जबकि ज्ञानियों का कहना है कि अध्यात्म में आत्मा के प्रति सच्चा स्वाभिमान होना चाहिए। हम किसी की आलोचना करते है तो इसका कारण भी मान कषाय का रूप है। दो प्रकार के व्यक्ति होते है अहंकारी और संस्कारी। अहंकारी दूसरों को झुकाकर खुश होता है जबकि संस्कारी स्वयं झुककर खुश होता है संसार में एक भी ऐसा अमीर या गरीब नहीं है जिसके जीवन के संचालन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में किसी का सहयोग न हो। एक जीवन को चलाने के लिए अनेक लोगों का सहयोग प्राप्त करना पड़ता है। तो फिर किसका और किस बात का अहंकार करें, समझ से परे है। जीवन में दीन-हीन भावना, महत्वाकांक्षा, अहंकार, आग्रह, स्वाभिमान ये सब मान कषाय का ही रूप है। हम जीवनभर कल्पनाओं में जीते रहते है। और इन कल्पनाओं का पूरा न होना ही दुख का कारण बनता है यही मान कषाय है।