संजय छाजेड़
उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी महाराज साहेब युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि ज्ञानी कहते हैं कि ही मानव सोते सोते ही तेरी सारी जिंदगी निकल गई। इस जिंदगी को जिसे तू बहुत प्यार करता है ये बोझा ढोते ढोते ही निकल गई। ज्ञानी कहते हैं हम शरीर की दृष्टि से तो जाग रहे हैं लेकिन आत्मा की दृष्टि से सो रहे हैं। जबकि आत्मा की दृष्टि से जागने का कार्य करना है। जब से इस दुनिया में जन्म लेकर हम आए हैं तब से हम उथल पुथल मचा रहे हैं। जन्म लेते ही भूख के कारण चिल्लाने लगते हैं। खेलकूद में ये बचपन बीत गया। युवावस्था संसार के राग और विषय भोग में फंसकर पाप कार्यों में निकल गया। इस प्रकार भोग में ही सारी जिंदगी निकल गई। धीरे धीरे शरीर में जब बुढ़ापा आने लगा ये मजबूत काया अर्थात शरीर कमजोर हो गया और न जाने कितने रोगों ने इसे अपना घर बना लिया। शरीर डगमगाने लग गया। ज्ञानी कहते हैं बचपना, युवावस्था और बुढ़ापा ये तीनों शरीर की अवस्था है। वास्तव में आत्मा की कोई अवस्था नहीं है। जीवन का अंत होने पर ये शरीर आग की लपटों में जल जायेगा। इसलिए हे चेतन इस शरीर का अंत समय आने से पहले आत्मा की दृष्टि से जाग जा। आत्मा के विकास का मार्ग प्रशस्त कर लें। जो बच्चे हैं वो युवा को देखकर और जो युवा हैं वो बुजुर्ग को देखकर विचार करें कि मेरा भविष्य भी ऐसा ही होगा।
चिंतन करना है कि जिस प्रकार चाबी न घूम जाए इसलिए उसे एक गुच्छे ने रखते है, कांच की वस्तु न टूट जाए इसका भी पूरा ध्यान रखते है। क्या हमने कभी विचार किया कि ये मानव जीवन रूपी अमूल्य अवसर जो हमें मिला है उसका एक एक दिन व्यर्थ हो रहा है इसे कैसे रोका जाए? इसका कैसे उपयोग किया जाए? कैसे इस अमूल्य मानव भव को सार्थक किया जाए? अगर अभी तक हमने इस जीवन में सार्थक चिंतन नही किया, प्रयास नहीं किया तो अब जाग जाओ और अपनी आत्मजागृति के लिए पुरुषार्थ करो।
कर्म बंधन की चार अवस्था होती है।
बंध - आत्मा में कर्मों का आना बंध कहलाता है।
उदय - आत्मा में आए हुए कर्मों का उदय में आना।
उदिरना - उदय में न आए हुए कर्मों को तप आदि के माध्यम से उदय में लाकर भोगना।
सत्ता - ऐसे कर्म जो हमने बांध तो लिए है लेकिन उदय में नहीं आया है। अर्थात ऐसे कर्म जिसे भोगना बाकी है।
कर्म दो प्रकार के होते है
अनिकाचित कर्म - ऐसे कर्म जिसे निर्जरा के माध्यम से समाप्त किया जा सकता है।
निकाचित कर्म - ऐसे कर्म जिसकी निर्जरा नही की जा सकती। इसे भोगना ही पड़ता है।
निर्जरा दो प्रकार का होता है
सकाम निर्जरा - इच्छा या इरादे पूर्वक साधन होने पर भी उसका त्याग करना। इससे कर्मों की निर्जरा हो सकती है।
अकाम निर्जरा - साधन के न होने पर या इच्छा या इरादे पूर्वक कर्मों की निर्जरा नहीं करते है।
ज्ञानी कहते हैं कर्म चाहे कितना भी बलवान क्यों न हो, लेकिन संवर के माध्यम से उसे आत्मा में आने से रोका जा सकता है और पूर्व में रहे हुए कर्मों को निर्जरा के माध्यम से समाप्त कर सकते हैं। सरोवर में चाहे कितना भी जल हो, अगर पानी आना रुक जाए तो ग्रीष्म ऋतु के आने पर वह सुख ही जाता है। जैसे समय आने पर फल अपने आप ही पक जाता है किंतु माली के प्रयास करने पर उसी फल को समय से पहले भी पकाया जा सकता है। वैसे ही आत्मा में रहे हुए कर्मों को निर्जरा के माध्यम से उदय में लाकर भोगा जा सकता है। जिस प्रकार एक माचिस की तीली से आग लगाकर सबकुछ नष्ट किया जा सकता है। उसी प्रकार तपस्या की आग में अपने कर्मों को जलाकर नाश किया जा सकता है। किंतु काया की माया में फंसकर हम तपस्या नहीं कर पाते हैं या करना नहीं चाहते हैं। तपस्या के बारह भेद होते है। जिनमे छः बाह्य तप और छः अभ्यंतर तप होता है। तपस्या कर्मों के निर्जरा का श्रेष्ठ माध्यम है। तपस्या करते समय इतना ध्यान जरूर रखना चाहिए कि यह इन्द्रियों के पोषण के लिए नही होना चाहिए। तपस्या का उद्देश्य आत्मा में लगे कर्मों की निर्जरा होनी चाहिए। कर्मों की निर्जरा होने पर ही आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो सकता है।