जो वर्तमान में जीता है वही सुखी होता है- परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरिहा के गोठ
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संजय छाजेड़ 

परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि हमे न तो भूतकाल को याद करना चाहिए और न ही भविष्य की कल्पना करना चाहिए हमे हमेशा वर्तमान में जीना चाहिए। क्योंकि जो वर्तमान में जीता है वही सुखी होता है। 

परमात्मा ने केवलज्ञान प्राप्त करने के बाद अपनी देशनाके माध्यम से  जो कहा उसे गणधरो ने शास्त्रों में गूंथा अर्थात लिखा और आचार्यों के माध्यम से है पहुंचा है। उन तत्वों को समझकर अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना है। ताकि ये मानव जीवन सफल हो सके। मेरी आत्मा नित्य, शुद्ध और ज्ञानवान है लेकिन इसमें विषय कषायो का जो धूल लगा हुआ है उसे बस हटाने की जरूरत है। अपने पुरुषार्थ को इतना बढ़ाना है कि दुबारा इस संसार में जन्म न लेना पड़े। क्योंकि इस संसार में बार बार जन्म लेने का एकमात्र कारण हमारे पुरुषार्थ की कमी है। हम सभी सौभाग्यशाली है क्योंकि हमें जिनवाणी सुनने का अवसर मिला है। हमारा विकास क्रमिक होना चाहिए। अर्थात लगातार विकास का क्रम चलते रहना चाहिए। हमारी आत्मा की बुरी अवस्था का मुख्य कारण गुरु निंदा है। मुक्ति के तीन मार्ग है।

 

पहला - तप

दूसरा - ज्ञान

तीसरा - भक्ति

तीनों मार्ग में भक्ति का मार्ग मुक्ति का सबसे सरल माध्यम है। 

देव गुरु की निंदा या आलोचना करना उस पेड़ की डाली को काटने जैसा है जिसमें हम स्वयं बैठे है। जीवन में आगे बढ़ने के लिए शर्त नहीं होना चाहिए। क्योंकि शर्तों से सौदेबाजी होती है संबंध नहीं बनते। हमे वो अच्छे लगते है जो चिकनी चुपड़ी बाते करते है। और सीधे ,सरल और स्पष्ट कहने वाले अच्छे नहीं लगते। जीवन में व्यवहार को सीढ़ी समझना चाहिए और निश्चय को मंजिल। हम स्वयं अपने लिए सबसे बड़े जज है। लेकिन स्वयं को कभी कमजोर या अधिक उत्साही नहीं मानना चाहिए। हमेशा अपनी वास्तविकता को आंकलन करना चाहिए। हमारे दुख का करना दूसरो से तुलना और प्रतियोगिता है।दुनिया में लगभग 700करोड़ इंसान है। हो सकता है उनमें से कुछ एक जैसे दिखते हो लेकिन सबके सोचने और समझने का तरीका अलग होता है। और तुलना बराबर गुण धर्म वालो में होती है। इसलिए तुलना नहीं करना चाहिए। 

श्रावक का चौथा सामान्य कर्तव्य होता है संयम का पालन। संयम का अर्थ होता है अपनी मर्यादा अर्थात अनुशासन में जीना। जो अनुशासन में जीता है वो कभी किसी के प्रति आसक्ति नहीं रखता , इसलिए सुखी होता है। जबकि आसक्ति रखने वाला हमेशा विपत्ति में अर्थात संकट में फंसता है। श्रावक को हमेशा द्रव्य और भाव से मर्यादा में रहना चाहिए। असंयम अर्थात अमर्यादा दुख के मार्ग को खोलने जैसा है। स्वयं की आत्मा के विकास के लिए पुरुषार्थ करते हुए संयम में रहना आवश्यक है। भविष्य में हमेशा संयमी ही सुखी बनता है। 

श्रावक का पांचवा सामान्य कर्तव्य है तप। तप अर्थात अपनी आत्मा के विषय और कषाय को तपकर आत्मा को कुंदन की तरह शुद्ध बनाना।

श्रद्धा का आटा, भक्ति की घी और विश्वास चीनी मिलाकर उससे ऐसा लड्डू बनाना चाहिए जिससे आत्मा तृप्त हो सके। तपस्या से पापों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है। 

श्रावक का छठवां सामान्य कर्तव्य होता है दान। हमेशा दान देने वाले का हाथ ऊपर होता है और लेने वाले का नीचे। दूसरो पर की गई दया स्वयं पर की गई दया के समान है। दान देना स्वयं पर दया करने का सबसे अच्छा माध्यम है।

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