परिस्थिति से भागना उससे बचने का मार्ग नहीं है- परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब

धमतरिहा के गोठ
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 संजय छाजेड़ 

परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी  महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 22 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि परमात्मा कहते है हे चेतन अर्थात हे जीव अब तो जाग जा। कब तक सोते रहेगा। मानव जीवन बहुत ही अनमोल है बड़े पुण्योदय से ये प्राप्त होता है। इस जीवन को सफल बना लो ऐसा सुअवसर मिला है। अगर ये समय बीत गया तो आत्मविकास का अवसर पुनः कब मिलेगा पता नहीं। हमारा ये जीवन राग द्वेष की परिणति में बीत रहा है। इंद्रिय सुख में हम फंसते जा रहे है। मोह-ममता में तो पूरा लीन हो गया है ये जीवन। न जाने, आने वाला भव कैसा होगा। अब अपने अंदर के अवगुणों को जानकर स्वयं उसे बाहर करने का पुरुषार्थ करेंगे। तब ही सच्चे सुख का अनुभव अपने भीतर होगा। जो अपने शरीर के स्थान पर मन को रमाने का परमात्मा को रिझाने का प्रयास करता है उसका उद्धार निश्चित है। परमात्मा के वचन जिनवाणी के माध्यम से हम श्रवण कर रहे है। 

उत्तराध्ययन सूत्र का दूसरा अध्याय है परिषह प्रविभक्ति। परमात्मा कहते है जैसा सुख मैने प्राप्त किया है वैसा ही सुख तू भी प्राप्त कर। परिषह के प्रति स्वीकार भाव जितना बढ़ेगा आत्मा का विकास भी उतना ही अधिक होगा। संसार की परिस्थितियों को बदलना हमारे हाथ में नहीं है किंतु उसे स्वीकार कर लेना हमारे हाथ में है। परिस्थिति को स्वीकार करने वाला ही सुखी हो सकता है। परिस्थिति को स्वीकार न कर पाने वाला अंत में अपना ही जीवन समाप्त कर लेता है। प्रतिकूल परिस्थिति से भागना उससे बचने का मार्ग नहीं है। परमात्मा और गुरु परिस्थितियों को दूर दृष्टि से देखते है इसलिए उनके मन में स्वीकार भाव बढ़ता है। बचपन से ही सभी परिस्थितियों के लिए स्वीकार भाव होना चाहिए। परिस्थितियों को सहन करने की भावना सुख प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी है। परिस्थितियों को सहन न करने के कारण शरीर और मन दोनों कमजोर होता है। आज हमारे पास संपत्ति और साधन अधिक है लेकिन सुख कम होते जा रहा है। स्वीकार भाव ही जीवन में आनंदऔर शांति लाता है। परिस्थिति अर्थात दूसरों की स्थिति जिससे हम प्रभावित होते है। जिस प्रकार एक कठपुतली को नचाने वाला कोई और होता है। उसी प्रकार अनुकूल या प्रतिकूल  परिस्थिति जो जीवन में आता है उसका कारण कर्म है। कर्मों के उदय के अनुसार जीवन में परिस्थितियां बदलते रहती है। सामने वाला व्यक्ति केवल निमित्त अर्थात माध्यम बनता है। ज्ञानी कहते है परिस्थिति बहते हुए पानी के समान है। परिस्थिति के बहने देना चाहिए , परिस्थिति के साथ हमें नहीं बहना चाहिए। स्वीकार भाव हर परिस्थिति में जीना सीखा देती है। जीवन में आदर्श उन्हें बनाना चाहिए जो हर परिस्थिति में सुख से जीना सिख गए।


18 पाप स्थानकों में तीसरा पाप है अदत्तादान। जीवन में हम वो कार्य करना चाहते है जिसमें कुछ फायदा अर्थात लाभ दिखाई दे। परमात्मा कहते है पाप कार्यों को छोड़ने से पुण्य के बंध का लाभ होता है। चारों गति का त्याग कर आत्मा सिद्ध गति में पहुंच सकती है। लोभ कषाय के कारण व्यक्ति चोरी का पाप करता है। लोभ का व्यसन ही चोरी का कारण है। दूसरों की वस्तुओं को बिना आज्ञा के उपयोग में लेना चोरी कहलाता है।

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