इस संसार में दूसरों से अपेक्षा करना ही निराशा और दुख का कारण होता है- परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज

धमतरिहा के गोठ
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संजय छाजेड़ 

उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी महाराज साहेब युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि ज्ञानी कहते हैं हे चेतन तुम्हे कैसे समझाऊं मैं। आत्मा को कैसे मनाऊं मैं समझ नहीं आता। ये संसार एक मेला है, न जाने यहां आत्मा ने कितने सुख दुख झेले हैं फिर भी कभी घबराया नहीं। इस संसार में हम सुख की इच्छा करके भी दुख ही पाते रहे हैं। जब जब आत्मा ने नरक गति को प्राप्त किया भयंकर कष्ट यहां पर हमें मिला। नरक में परमाधामी देव ना जाने कितने कष्ट हमे देते थे, किंतु कोई बचाने नहीं आया। आत्मा शरीर के माध्यम से पाप सबके लिए करती रही है लेकिन उस पाप को भोगना अकेले ही पड़ता है। नरक गति से निकल कर जब पशु पक्षी के जीवन में पहुंचे, तो बोझ उठाना पड़ा साथ ही पीठ में कोड़े भी खाने पड़ते थे। पक्षी बना तो खुले अंबर में घोंसला बना कर रहना पड़ता था। भयंकर सर्दी, गर्मी और बरसात के कष्टों को भी सहना पड़ता था। किंतु कभी किसी ने कोई सहायता नहीं की और न ही कोई विकल्प मेरे पास था। इस पशु पक्षी की गति से निकल पर थोड़ा आगे बढ़ा तो मनुष्य और देव गति प्राप्त कर लिया। यहां पर आकर भी संसार के भोगों में फंस गया। पुण्य से मिले इस गति में आकर अपने पुण्य को निरंतर कम करता रहा। अब न जाने आने वाले भव में इस आत्मा का क्या होगा? मानव भव ही एक ऐसा अवसर हमे प्रदान करता है जिसमें हम अपने संस्कारों को बदल सकते हैं। इस मानव जीवन में अगर हमने अपने ज्ञान चक्षु को खोल लिया अपने अंतर्मन में ज्ञान का प्रकाश कर लिया। जड़ और चेतन का भेद समझ लिया। आत्मा और शरीर अलग अलग है यह ज्ञान मिल गया तो निश्चित ही आत्मा का उद्धार हो सकता है। आत्मा और शरीर का भेद समझने वाला ही ज्ञानी कहलाता हैं। शरीर से संबंध तो एक भव का होता है किंतु आत्मा से संबंध तब तक होता है जब तक आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। ज्ञानी कहते हैं ये सभी अवस्था हमारी ही है। हमने ही कभी नरक, तिर्यंच, मनुष्य तो कभी देव गति में आकर इस प्रकार के सुख दुख को प्राप्त किया है। अब यह सब समझकर अपने आत्मा के उद्धार के लिए पुरुषार्थ करना है।

ज्ञानी कहते हैं हमारा मोह शरीर के प्रति होता है इसलिए संसार में भटक रहे हैं जिस दिन हम शरीर के मोह को छोड़कर आत्मा की चिंता करना प्रारंभ कर लेंगे उस दिन आत्मविकास का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा। इसके लिए हमें अपनी आत्मा के वास्तविक स्वभाव में आना होगा। आत्मा का वास्तविक स्वभाव परमात्मा में लीन रहकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होना हैं। इस संसार में कुछ भी मेरा नहीं हैं और कोई मेरा नहीं है। जो मेरा है वो है मेरी आत्मा। मेरी आत्मा हमेशा मेरे साथ ही रहती है। इस संसार में दूसरों से अपेक्षा करना ही निराशा और दुख का कारण होता है। इसलिए अगर हम अपने लिए सुख की कामना करते हैं तो दूसरो से अपेक्षा नहीं रखना चाहिए। स्वयं अनुकूल पुरुषार्थ करके सुख को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए।  


दिनांक 06/10/2024 दिन रविवार को श्री पार्श्वनाथ जिनालय में प्रातः 08.36 बजे से नौ तीर्थंकर सह नवग्रह पूजा का आयोजन किया गया है। इस पूजा के विधिकारक श्री यशवंत जो गोलेछा जयपुर से पधारेंगे। 

किस ग्रह के कारण जीवन में किस प्रकार की परिस्थिति आती है। कब किस तरह और किनकी आराधना साधना से ग्रहों को शांत किया जा सकता है इसके संबंध में पूजा के मध्य बताया जायेगा।

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