देवता भी मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए रोते है तरसते है- परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज

धमतरिहा के गोठ
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 संजय छाजेड़ 

धमतरी | उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी महाराज साहेब युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि ज्ञानी भगवंत कहते हैं ये मानव जीवन जो हमे मिला है ये अत्यंत दुर्लभ है। अगर इसे पाकर हमने व्यर्थ ही गवां दिया तो दुबारा मिलना अत्यंत कठिन हैं। जब हम पशु के भव में थे तब जो भोग हमने भोगा अगर वैसा ही भोग इस मानव भव में भी चाहते हैं वैसा ही जीवन हम अभी भी चाहते हैं तो मानव जीवन व्यर्थ है। पशु भव में तीन ही काम किए थे खाना, पीना और सोना। यही कार्य अगर मानव जीवन में भी करते रहे तो मानव जीवन पाने का कोई अर्थ ही नही होगा। देवता भी मानव जन्म को प्राप्त करने के लिए रोते है तरसते है। देवता भी मानव से ईर्ष्या करते हैं कि हमें ये मानव जीवन क्यों नहीं मिला क्योंकि मानव जीवन प्राप्त करके ही मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। हमें ऐसा दुर्लभ मानव जन्म हमें बड़े सौभाग्य से मिला है। इस मानव भव के रूप में हमें भगवान बनने की क्षमता प्राप्त हुई है। किंतु भगवान बनने से पहले हमे इंसान बनना होगा। इस मानव जन्म को चरितार्थ करने के लिए पहले मानव जैसा आचरण जीवन में लाना होगा। इस मानव जीवन में ऐसा कार्य करना है अपने संस्कारों को इतना बढ़ाना है कि इस संसार के जन्म मरण से मेरी आत्मा को मुक्ति मिल जाए। ज्ञानी कहते हैं तू उस दिशा में एक कदम चलने का प्रयास तो कर जिस दिशा में तेरी आत्मा की वास्तविक मंजिल हैं। हमें सिद्ध बनकर मिले हुए मानव जीवन को सिद्ध करना है। हरपल व्यतीत होते हुए जीवन को पतित होने से बचाते हुए पावन-पवित्र करना हैं और परमात्मा बनने की राह में अग्रसर करना हैं। मानव जीवन के रूप में मिले हुए नाशवान शरीर का मूल्यांकन तो दिन प्रतिदिन करते हैं लेकिन विचार करना है क्या कभी हमनें अमूल्य आत्मा का मूल्यांकन किया? ज्ञानी कहते हैं निगोद से निकलकर संसार में आना अत्यंत दुर्लभ है। क्योंकि जब एक जीव इस संसार से मोक्ष में जाता है तब एक जीव निगोद से निकलकर संसार में आता है। निगोद में केवल दुख ही दुख है। अब जब हमें निगोद से निकलकल संसार में आने का अवसर मिला है तो इस अवसर का लाभ उठाते हुए ऐसा पुरुषार्थ करना है कि इस संसार से मुक्त हो जाए सिद्ध बुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लें। 

ज्ञानी कहते हैं पूर्वी सभ्यता और संस्कारों को मानने वाला, तीर्थंकरों की जननी और देवभूमि कहलाने वाला भारत जैसा देश हमें मिला है। अहिंसा को धर्म मानने वाला धर्म भी हमनें प्राप्त कर लिया। किंतु इस दुर्लभता को प्राप्त करके हमने क्या हमनें मुनुश्य जीवन को चरितार्थ किया? आत्मा के विकास का पुरुषार्थ किया? अगर ऐसा नहीं कर पाए तो मानव जीवन रूपी अनमोल रत्न को हमनें खो दिया। हम उस मूर्ख व्यक्ति के समान है जो अमूल्य रत्न का उपयोग पक्षी को भगाने में करता हैं।

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