इस संसार में संपत्ति बहुत है पर शांति नहीं- परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज

धमतरिहा के गोठ
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संजय छाजेड़ 

युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि मेरा जिया अर्थात चेतन या मन ना जाने कब तक संसार के विकल्पों में उलझेगा। न जाने आजतक कितने भव संकल्प विकल्पों में बीत गया है। ज्ञानी कहते है कि हे चेतन उड़ उड़ कर न जाने आजतक कितनी गतियों में तू भटकते रहा है। जहां जिस गति में भी गया अपने राग के कारण वहां दुख ही पाया है। इतना दुख पाने के बाद भी कभी अपनी आत्मा का स्मरण नहीं आया। जबकि आत्मा के विकास से ही हमे शाश्वत सुख मिल सकता है। अब तो समझ जा और अपनी आत्मा को संभाल ले। इतना दुख पाकर भी मूढ़ अर्थात अज्ञानी बना हुआ है। ये संसार के राग के प्रति तेरा पागलपन है। अब तो बाहर देखना छोड़कर अपने अंदर देख, अंतर्मुख हो जा। तभी तेरा उद्धार हो सकता है। ज्ञानी कहते हैं हमे चिंतन करना चाहिए मैं कौन हूं? कहां का हूं? मेरा न जाने आजतक कितने नाम हुए? कहां से मैं आया था अब कहां जाना हैं? इन सभी का चिंतन ही मेरी चेतना को जगा सकता हैं। इस भव में जिस नाम से मैं जाना पहचाना जाता हूं। मेरे शरीर से आत्मा के निकलते ही वह पहचान भी समाप्त हो जायेगी।

हे चेतन ये मानव भव बड़े भाग्य से मिलता है। इसे एक अवसर मान कर इसका लाभ उठा ले। अगर ये अवसर चूक गया तो अनंत काल तक पछताना पड़ेगा। न जाने फिर कब ये मानव भव मिलेगा। इसलिए हे चेतन अब तो अपने नाशवान शरीर की चिंता छोड़कर आत्मा की चिंता कर ले। नहीं तो आत्मा का भटकन अनंतकाल तक चलते ही रहेगा और जीवन में दुख के बादल छाए रहेंगे। संसार के विकल्पों से दूर रहकर अपना संकल्प केवल परमात्मा को प्राप्त करने के लिए होना चाहिए। विचार करना है संसार में हर कार्य का एक निश्चित समय होता है। लेकिन हमारी आत्मा का इस संसार में भटकने का समय कितना है? इस संसार में संपत्ति बहुत है पर शांति नहीं। इस संसार में साधन बहुत है साधना नही। इस संसार में गति बहुत है पर विकास नहीं। इस संसार में राग बहुत है पर वैराग्य नहीं। अर्थात इस संसार में जो भी है वो हमारे नाशवान शरीर के लिए है आत्मा के विकास के लिए कुछ भी नही। और यही शरीर के सुख का मोह हमे संसार को छोड़ने नही देता। संसार में किसी भी कार्य की मनाही नहीं है लेकिन कार्य करने से पहले इसका परिणाम क्या होगा? इसका विचार पहले करना चाहिए। जन्म-मरण के सुख दुख का परिवर्तन इस संसार में लगातार चलते रहता है। सुख और दुख अपने पूर्व के कर्मों के आधार पर प्राप्त होता है। हम एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करते करते न जाने कब से चारों गतियों में भटक रहे है। आत्मा से पाप और पुण्य कर्म जब तक समाप्त नहीं होगा तब तक मुक्ति नही मिल पाएगी। संसार में कदम कदम पर परीक्षा है ।परीक्षा का अर्थ है पर की इच्छा अर्थात दूसरों की इच्छा से होने वाला कार्य। हम इस संसार में जो भी करते है वो सब दूसरों की इच्छा से करते है। अपने परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अपनी इच्छा से कार्य करना होगा।  लेकिन हम इसके विपरित कार्य करते है। हम संसार के जितना अधिक निकट आ रहे है अपनी आत्मा से उतना ही दूर होते जा रहे है। और अपनी आत्मा से दूर होने वाला कभी भी संसार से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध नहीं बन सकता। आकाश की तरह हमारी इच्छा भी अनंत है। यही अनंत इच्छा हमसे हमेशा पाप कार्य कराता है। हमारे शरीर का एक दिन अंत जरूर होगा जबकि संसार अनंत है। इसलिए अब हमे अनंत संसार के मोह को छोड़कर आत्मा में रमण करना है।

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