भव के बदलने से पहले हमे अपना भाव बदलना है- परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरिहा के गोठ
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 संजय छाजेड़ 

परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि प्रगतिशील आत्मा जो परमात्मा बनने का प्रयास कर रहे है उन्हे और अधिक पुरुषार्थ करने का प्रयास करना है। ये मानव भव हमे अपने भाव को बदलने के लिए मिला है। हम इस संसार में सबको बदलना चाहते है लेकिन स्वयं के भाव को नही बदलना चाहते। ज्ञानी भगवंत कहते है इस भव के बदलने से पहले हमे अपना भाव बदलना है। और भाव को बदलकर उन भावो को अपने हृदय में लाना है जिस भाव के कारण भगवान बन सके। हमारी आत्मा अच्छे भाव के अभाव में अपने वास्तविक स्वभाव में नहीं आ सकती। और अपने स्वभाव में न आने के कारण उसका प्रभाव भी दिखाई नहीं देता। कई बार हम जाने अनजाने में ही द्रव्य के स्थान पर भाव से आशातना अर्थात पाप कर लेते है। हमारे जैसे भी भाव होंगे उसका कुछ न कुछ प्रभाव जरूर होगा। और उसका फल भी जरूर मिलता ही है। हमे विचार इसलिए करना है क्योंकि हमे विचार करने की योग्यता मिली है। अगर हम इस योग्यता का उपयोग नही करेंगे तो आने वाले भव में यह योग्यता फिर नहीं मिलेगी। इस संसार में हमारे पास सबके लिए समय है केवल स्वयं को छोड़कर। पूर्व के कर्मो के कारण आज हमे जो मिला है आने वाले भव में ऐसा ही मिले आवश्यक नहीं है। क्योंकि इस भव में हमारे भाव पूर्व के जैसे नही है। परमात्मा ने स्वाध्याय के 5 अंग बताए है वांचना, प्रिछना, परावर्तन, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा । इन पांचों के माध्यम से अपनी आत्मा को जानने का पहचानने का प्रयास करना चाहिए। जीवन की तीन अवस्था होती है साथ ही तीन योग्यता भी मिलती है समय, समझ और शक्ति। बाल्यकाल में हमारे पास समय तो बहुत होता है पर समझ और शक्ति नही होती। वृद्धावस्था में हमारे पास समय और समझ दोनो बहुत होता है लेकिन शक्ति नही होती। लेकिन इस युवावस्था में हमारे पास समय , समझ और शक्ति तीनों है। बस इसका सदुपयोग करना है आत्मा के कल्याण के लिए। हम कहते है हमारे पास समय नहीं है लेकिन हमारे पास संसार के कार्यों के लिए तो समय होता है लेकिन आत्मा के विकास के कार्यों के लिए समय का अभाव हो जाता है । इसी कारण आत्मविकास रुका हुआ है।

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