हलषष्ठी व्रत-संतान की लंबी उम्र के लिए माताओं ने रखा व्रत, किया पूजन

धमतरिहा के गोठ
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संजय छाजेड

धमतरी। बच्चों की लम्बी उम्र के लिए हलषष्ठी व्रत यानी कमरछट का पर्व मनाया गया। छत्तीसगढ़ की माताएं अपनी संतान की समृद्धि और लम्बी उम्र के लिए ये व्रत रखती है। वैसे तो हिन्दू धर्म में कई व्रत और त्यौहार हैं पर छत्तीसगढ़ अंचल में दो ही व्रत ऐसे हैं जिन पर महिलाओं की सबसे ज्यादा आस्था है। एक तीजा और दूसरा कमरछट जिसमें तीजा सुहाग के लिए और कमरछट संतान के लिए रखा जाता है। अपने अपने मोहल्ले के मंदिरो तके पूजन सम्पन्न कराया गया जहां व्रती महिलाओं ने पूजा अर्चना कर कथा सुनी।

      हलषष्ठी के दिन महिलाएं खम्हार पेड की लकडी का दातुन करती हैं खम्हार ग्रामीण अंचल व जंगलों में पाया जाने वाले पेड़ की एक प्रजाति है। सभी महिलाएं एक जगह एकत्रित होती हैं वहां पर आंगन में एक गड्ढा खोदा जाता है जिसे सगरी कहा जाता है।  महिलाएं अपने.अपने घरों से मिटटी के खिलौने, बैल, शिवलिंग, गौरी- गणेश इत्यादि बनाकर लाती हैं जिन्हें उस सगरी के किनारे पूजा के लिए रखा जाता है। उस सगरी में बेल पत्र, भैंस का दूध, दही, घी, फू ल, कांसी के फ ूल, श्रृंंगार का सामान, लाई और महुए का फूल चढ़ाया जाता है।  महिलाएं एक साथ बैठकर हलषष्ठी माई के व्रत की कथाएँ सुनती हैं। उसके बाद शिव जी की आरती व हलषष्ठी देवी की आरती के साथ पूजन समाप्त होता है। हलषष्ठी पूजा के बाद माताएं नए कपडे का टुकड़ा सगरी के जल में डुबाकर घर ले जाती हैं और अपने बच्चों के कमर पर से छह बार छुआति हैं इसे पोती मारना कहते हैं। पूजा के बाद बचे हुए लाई, महुए और नारियल को महिलाएं प्रसाद के रूप में एक दूसरे को बांटती हैं और अपने. अपने घर लेकर जाती हैं। घर पहुंचकर महिलाएं फलाहार की तैयारी करती हैं। फलाहार के लिए पसहर का चावल भगोने में बनाया जाता है इस दिन कलछी का उपयोग खाना बनाने के लिए नहीं किया जाता, खम्हार की लकड़ी को चम्मच के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। छह प्रकार की भाजियों को मिर्च और पानी में पकाया जाता है। इस भोजन को पहले छह प्रकार के जानवरों के लिए जैसे कुत्ते, पक्षी, बिल्ली, गाय, भैंस और चींटियों के लिए दही के साथ पत्तों में परोसा जाता है। फिर व्रत करने वाली महिला फलाहार करती है। नियम के अनुसार सूर्यास्त से पहले फलाहार कर लेना चाहिए।


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