परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि परमात्मा और गुरु की कृपा से पहले मैं एक बुझा हुआ दीया के समान था। जब आपकी कृपा दृष्टि मुझ पर पड़ी मेरी जिंदगी रोशन हो गई। अब यही प्रार्थना है आगे भी इसी तरह आपकी कृपा दृष्टि मुझ पर पड़ी रहे। मैं इस जगत में एक सीप की तरह खाली था जिस पर आपके स्नेह की दृष्टि पड़ते ही मोती की तरह मूल्यवान हो गया। इस संसार में बस परमात्मा और गुरु ही है जो अपनी योग्यता से अमूल्य को मूल्यवान बना सकते है।
संसार की कोई भी वस्तु खरीदने के समय अपने आप को जागृत या सावधान रखते हैं। उसी प्रकार हमे गुरु के प्रति सदा जागरूक रहना चाहिए। जो भक्त नही बन सकता वो कभी भगवान नही बन सकता। आज हमे जानना है गुरु भक्त कौन और गुरु द्रोही कौन।
गुरु द्रोही - गुरु की अवज्ञा करने वाला गुरु द्रोही कहलाता है। हम अपने गुरु को मान लेते है लेकिन दूसरे गुरु की अवज्ञा करते हैं तो भी वह गुरु द्रोही कहलाता है। गुरु के साथ साथ गुरु के प्रतिनिधि को भी गुरु मानना चाहिए। गुरु की आज्ञा का उलंघन करने वाला भी गुरुद्रोही कहलाता है। गुरु के साथ बैर का भाव रखने वाला भी गुरु द्रोही कहलाता है। गुरु के प्रति बैर का भाव रखने वाला शिष्य गुरु के नमन करने के योग्य नहीं माना जा सकता। गुरु की निंदा करने वाला गुरुद्रोही कहलाता है। गुरु के साथ मनमाना आचरण करने वाला भी गुरुद्रोही कहलाता है। गुरु द्रोही का मुख भी नही देखना चाहिए। क्योंकि उसके कारण हम भी पाप के भागीदार बन सकते है। अपने मन की इच्छा पूरी करने के लिए गुरु को दुखी करने वाला भी गुरुद्रोही कहलाता है।
गुरु को आहार देने के समय चार बातों का ध्यान रखना चाहिए।
पहला - भावना अर्थात गुरु को आहार देने का शुद्ध भाव रखना चाहिए।
दूसरा - निवेदन अर्थात गुरु से निवेदन करना चाहिए की हमे आप आहार अर्थात गोचरी का लाभ देवे।
तीसरा आग्रह - गुरु से आग्रह करना चाहिए और आग्रह स्वीकार होने पर ही कुछ देना चाहिए।
चौथा कदाग्रह - गुरु के मना करने पर भी देना।
हमे कभी भी इतना समझदार नही बनना चाहिए की दूसरे हमे नासमझ समझने लगे। एक शिष्य के लिए गुरु आज्ञा का पालन करना ही धर्म कहलाता है।
सावन माह श्रवण करने का अर्थात सुनने का माह है। और भादो का माह सावन में हमने जो सुना है उसे आचरण में लाने का माह है।
गुरु भक्त का एक अच्छा उदाहरण हनुमान जी है। गुरु भक्त हनुमान जैसा बनने का प्रयास करना चाहिए। हनुमान जी ने गुरु अर्थात अपने आराध्य भगवान राम की कृपा से ही इतने बड़े समुद्र को लांघ कर लंका पहुंचे थे। उन्ही की कृपा से हिमालय से संजीवनी लेकर आए थे। यही कारण है की आज भगवान राम के प्रत्येक मंदिर में हनुमान जी भी विराजमान है। हनुमान आदर्श है एक सच्चे गुरुभक्त का। जहां हनुमान जी है वहा राम का होना स्वाभाविक है। उन्हें खोजने की आवश्यकता नहीं है।
गुरु भक्त - आज्ञाकारी होने का भाव। कोई भी गुरुभक्त हमेशा आज्ञाकारी होता है। गुरु की आज्ञा मानने वाला गुरु भक्त कहलाता है। गुरु के प्रति हमेशा समर्पण भाव होना चाहिए। गुरु के प्रति सदा निःस्वार्थ भाव होना चाहिए। गुरु के प्रति शिष्य के हृदय में हमेशा अहोभाव होना चाहिए। तभी गुरु की कृपा हो सकती है । जिस शिष्य पर गुरु की कृपा हो जाती है उसके जीवन में समझ, साहस, शक्ति और सरलता अपने आप आ जाती है । ज्ञानी भगवंत कहते है गुरु के बिना जीवन शुरू नही हो सकता। शिष्य जब स्वयं को शून्य समझकर गुरु को संख्या मान लेता है। और निःस्वार्थ भाव से स्वयं को गुरु से जोड़ लेता है तब शिष्य का मूल्य भी दस गुना बढ़ जाता है। हमे अपने जीवन में कम से कम गुरु की एक आज्ञा का आजीवन पालन करना चाहिए। किसी का गुरु बने बिना तो जीवन में मुक्ति मिल सकती है लेकिन किसी को गुरु बनाए बिना मुक्ति पाना असम्भव है। गुरु के प्रति हमेशा विनय का भाव रखना चाहिए। क्योंकि विनयवान शिष्य ही योग्यता प्राप्त कर सकता है। एक गुरु हमेशा अपने शिष्य के सांसारिक विकास की नही बल्कि आत्मा के विकास का ध्यान रखता है। अपने शिष्य के संस्कारों और आचरण के विकास का प्रयत्न करने वाला ही गुरु बनने की योग्यता रखता है। जीवन में प्रथम गुरु माता -पिता है।
दूसरे गुरु - शिक्षा दीक्षा दाता गुरु
तीसरा गुरु - जो शिष्य के आत्मा की चिंता करने वाले गुरु ।