परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 11 अगस्त 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि कुछ पल की जिंदगी है इसमें केवल आगे बढ़ने का प्रयास करना है। एक दिन सभी को इस संसार से जाना है, एक पल का भी ठिकाना नहीं है। मर मर कर हम अपने तन को सुंदर बनाने का प्रयास करते है। इत्र की खुशबू से शरीर को महकाते है। लेकिन एक दिन शरीर का अंत जरूर होगा। तो फिर इसे क्यों इतना सजा रहे पता नहीं। ऐसी भी घड़ी जीवन में आएगी जब कोई साथ नहीं होगा। एक एक कर्मों का हिसाब यहीं होगा। यही सोचकर हमको कर्म करना चाहिए। इस संसार में कोई मेरा नहीं है। फिर मेरा मेरा क्यों करते है समझ से परे है। खाली हाथ ही इस संसार में आए थे और खाली हाथ ही यहां से जाना है। इसलिए अब अपने अंदर की आंखों को खोलने का प्रयास करना है ताकि आत्मविकास का एक नया सबेरा हो सके।
चातुर्मासकाल अपनी गति से चल रहा है। और हम सब अपनी योग्यतानुसार जिनवाणी को सुनकर, मानकर उसी तरह जीने का प्रयास कर रहे है। अगर वास्तव में भगवान की तरह हम भी जीवन जी पाए तो भगवान की तरह सुख भी प्राप्त कर लेंगे।
परमात्मा 18 पाप स्थानकों को समझाते हुए कहते है। हम जीवन भर पाप करते रहते है। हम कोई ऐसा काम नहीं करते जिसमें पाप न हो। जीवन में जितना पाप कर रहे है उतना ही जीवन का नाश होते जा रहा है। जीवन में जितनी भी अशांति है उसका कारण ही पाप है। संसार में जीवन को चलाने का साधन पाप को मानते है जबकि परमात्मा कहते है बिना पाप के भी जीवन चल सकता है। पाप जीवन को डुबाने का काम करता है। पाप के बिना अगर जीवन व्यतीत करे तो जीवन का विकास हो सकता है। जिस प्रकार एक बच्चा अपने कपड़ों को खेलते खेलते जल्दी गंदा कर लेता है। लेकिन मां सभी कार्य करते हुए भी अपने कपड़ों को गंदा होने से बचा लेती है। उस मां के समान ही हमे भी संसार के कार्यों को करते हुए अपने कपड़े रूपी आत्मा को गंदा होने से अर्थात पाप कार्यों से बचाना है। ज्ञानी कहते है अपनी आत्मा को न पहचानना ही अपने आप से द्वेष है। द्वेष ही आत्मा की दुर्गति का कारण है। आत्मा की जागृति के लिए शरीर का राग छोड़ना पड़ेगा। अनंतानुबंधी कषाय को जीतकर सम्यकदर्शन प्राप्त करते है। अप्रत्याख्यानि कषाय हमारे जीवन में व्रत अर्थात नियम को आने नहीं देता। वास्तव में नियम ही अनुशासन में रहना सिखाता है। अप्रत्याख्यानि कषाय को जीतकर ही सच्चा श्रावक बन सकते है। प्रत्याख्यानी कषाय को जीतकर हम अपनी आत्मा के लिए जीवन जीना चाहते है। ये हमे सत्य की ओर आकर्षित करने का कार्य करता है। ये कषाय हमे सभी पापों को छोड़ने नहीं देती।
जो संसार को छोड़कर साधु जीवन स्वीकार कर लेता है वो प्रत्याख्यानी कषाय पर विजय प्राप्त कर लेता है। साधना ही शरीर के माध्यम से आत्मा को साधने का मार्ग है। कषाय को जितने वाला ही साधु जीवन स्वीकार करके ऐसी साधना कर सकता है। जीवन में प्रमाद हमे साधना करने से रोकता है। परिणाम स्वरूप आत्मा का विकास भी रुक जाता है। आत्मा को पतन से रोकने के लिए पापों को छोड़ना चाहिए। साथ ही मुक्ति पाने के लिए पाप के साथ पुण्य को भी छोड़ना पड़ता है। अर्थात पाप और पुण्य , शुभ और अशुभ कार्य को छोड़ने पर ही मुक्ति मिलती है। संज्वलन कषाय अंदर ही अंदर आत्मा में चलती रहती है। इसे हम देख नहीं पाते। इसे समझ पाना बहुत कठिन होता है। केवलज्ञान की इच्छा भी केवलज्ञान को रोक देता है। संज्वलन कषाय को जीतकर वीतरागी बन सकते है। वीतरागी बनने के बाद कोई कषाय हमारी आत्मा को कभी भी परेशान नहीं करेगी। क्योंकि अब आत्मा शुद्ध हो चुकी है। हमें अपने जीवन से परमात्मा के बताए मार्ग में चलकर कषाय को निकालने का प्रयास करना है। वर्तमान में 3 कषाय को दूर किया जा सकता है। किंतु चौथा कषाय संज्वलन कषाय को दूर करने के लिए शुक्लध्यान की आवश्यकता होती है। चार प्रकार का कषाय हमे दिखाई देता है लेकिन फिर भी इसे दूर करना कठिन है। जीवन से कषाय को निकालना ही धर्म है। जीवन से कषाय को निकालने का अर्थ है परमात्मा की वाणी को स्वीकार करना , परमात्मा के बताए रास्तों पर चलने वाले वाला ही ऐसा कर सकता है। आत्मा के अंदर कषाय को लाखों परत जमीं हुई है। इसे निकालना बहुत कठिन है। समुद्र में अनेक लहर उठती है लेकिन जो लहर सामने आता हम वही देख पाते है। इसी प्रकार आत्मा में बहुत सारा कषाय चलते रहता है किन्तु जो सामने आ जाता है वहीं दिखाई देता है। आत्मा की बीमारी है कषाय। हमें इस जीवन में आत्मा की बीमारी रूपी कषाय को दूर करने के लिए धर्म रूपी दवाई लेना है। चार प्रकार के कषाय है क्रोध, मान, माया, लोभ ये चारों कषाय जीवन में अनंतकाल से चल रहा है। अब इसे छोड़ने का प्रयास करना है।
क्रोध अग्नि की तरह है। अग्नि स्वयं भी जलती है और दूसरों को भी जलाती है। क्रोध करने की पहली शर्त है स्वयं दुखी होना। जीवन से क्रोध जब तक समाप्त नहीं होगा तब तक आत्मा कषाय से मुक्त नहीं हो सकता। उपलब्ध परिस्थिति के प्रति स्वीकार भाव हमे क्रोध से मुक्ति दिला सकता है।