आत्मा ही शुद्ध स्वरूपी है- परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज

धमतरिहा के गोठ
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संजय छाजेड़ 

उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी महाराज साहेब युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि हे चेतन यह जीवन क्षण क्षण बीत रहा है अब तो जाग जा। भव भव की ये भ्रमणा चल रहा है अब तो सच्चे मार्ग में आ जा, और इस मार्ग में आकर स्थिर हो जा। हे आत्मा तू शाश्वत है सनातन है। अजर और अमर है फिर इस संसार में तेरा कैसा आवागमन चल रहा है। ये शरीर अनित्य और नाशवान है। किंतु आत्मा तो नित्य है। इसीलिए तेरे हृदय में नित्य परमात्मा विराजमान है। फिर तू कैसे अनित्य की ओर चला जा रहा है समझ से परे है। इसका एक मात्र कारण है कि तू मोह निद्रा में सोया हुआ है। अब जाग जा, अपनी आत्मा के विकास के लिए जागरूक हो जा। आसक्तियों की भीड़ में निज अर्थात स्वयं की आवश्यकता और गुणों को भूल गया। सुख पाने की मृगतृष्णा में संसार में भटक रहा है। अब जीवन के संध्या की बेला आ गई है और न जाने कब जीवन का सूर्यास्त हो जाए। उससे पहले ही तू संभल जा। और अपनी आत्मा की चिंता करना प्रारंभ कर दे। हे परमात्मा आप तो वीतरागी और विचक्षण है। आप विमल स्वरूप वाले हो। आपकी आत्मा ज्योतिर्मय है। आप पुरुषार्थी हो। मुझे भी ऐसा ही बनने का प्रयास करना है। क्षण क्षण बीत रहे इस जीवन में कुछ क्षण परमात्मा की वाणी को सुनकर अपनी आत्मा के समीप आने का प्रयास करना है। इस सांसारिक व्यवहार में हम अपने सुख के लिए जिस प्रकार की व्यवस्था करते है कहीं वह अव्यवस्था का कारण न बन जाए। हम इस संसार में आकर नित्य को भूलकर अनित्य की चाह में अपने जीवन का पल पल बर्बाद कर रहे है। ज्ञानी भगवंत कहते हैं कि किसी के द्वारा जो कभी न कभी त्याग किया जा चुका है वो विष्ठा अर्थात मल के समान है। और हम इसी विष्ठा के मोह में संसार का भ्रमण करते रहते है। हम किसी वस्तु के वर्तमान स्वरूप को देखते है जबकि ज्ञानी उसके अंतिम स्वरूप को देखते है। और संसार के हर वस्तु का अंतिम स्वरूप विष्ठा के समान है अर्थात किसी न किसी के द्वारा त्याग किया हुआ है। ज्ञानी कहते हैं ये शरीर मलिन है नाशवान है। इसकी चिंता करना छोड़ दो। और आत्मा की चिंता में लग जाओ। क्योंकि आत्मा ही शुद्ध स्वरूपी है। ये आत्मा ही परमात्मा तक पहुंच सकती है और अनुकूल प्रयास पूर्वक परमात्मा बन सकती है। हमे इस शरीर को साध्य नहीं मानना चाहिए साधक मानना चाहिए। साधक वस्तु का उपभोग तो करता है लेकिन उसका स्वाद नहीं लेता। अर्थात नीरस भाव से वस्तु का उपभोग करता है। 

ज्ञानी भगवंत कहते हैं हमे आत्मविकास के लिए जीवन में पांच बातों का ध्यान रखना चाहिए। 

पहला सुनना - सबसे पहले हमे किसी भी प्रकार की बातों को अच्छे से सुनना चाहिए। 


दूसरा स्वीकार करना - सुनने के बाद जांच करके उसे स्वीकार करने की आवश्यकता होती है। 


तीसरा समझना - जांच करने में अगर तत्व सही लगे तो उसे समझना चाहिए।


चौथा संभलना - समझने के बाद उसे अपने लिए उपयोगी मानकर अपने आप को संभालना चाहिए। 


पांचवा सच्चा पुरुषार्थ - स्वयं अर्थात आत्मा को संभालने की इच्छा रखने वाला ही सच्चा पुरुषार्थ करता है। 

ज्ञानी उस तत्व को जानने और समझने का प्रयास करते है जिससे आत्मा का विकास हो सके। अर्थात ज्ञानी सार तत्व को देखते है। और हम संसार में उन तत्वों को देखते है जिसके कारण संसार का भ्रमण बढ़ता है। इसीलिए हम अज्ञानी कहलाते है। हम इस संसार में स्वयं को सुखी करने के लिए आने वाले भव में दुख मिले हम ऐसा काम भी कर लेते है। जबकि ज्ञानी आने वाले भव में अपनी आत्मा को सुखी करने के लिए अगर वर्तमान जीवन में दुख आए तो उसे समताभाव पूर्वक भोगने का कार्य करते है।

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