संजय छाजेड
धमतरी। उपाध्याय प्रवर अध्यात्म योगी परम पूज्य महेंद्र सागर जी महाराज साहेब, युवा मनीषी परम पूज्य मनीष सागर जी महाराज साहेब के शिष्य रत्न युवा संत परम पूज्य श्री विशुद्ध सागर जी महाराज साहेब ने आज के प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि समकित से अपनी आत्मा का श्रृंगार करोगे, कब संयम अर्थात चारित्र लेकर अपनी आत्मा का उद्धार करोगे। हे चेतन तू क्यों बात नही मानता। तेरा तो स्वरूप ही ज्ञान का है। तू कहां से आया है तुझे कहां जाना है कितना दूर जाना है पता ही नहीं है। जब तक इसकी जानकारी नहीं है तब तक इस मानव भव को बेकार कर रहे हो। ज्ञानी कहते हैं हे चेतन तुझे इस संसार के भोग के साधन सुहाने लगते हैं इसके लिए तू अपनी आत्मा के सद्गुण के खजाने को लुटा देता है। न जाने ऐसी गलती कब से कर रहे हो और कब तक करते रहोगे। अब तो समझ जा। अपनी गलती को सुधार ले। अगर अपना कल्याण चाहते हो तो पहले अपनी आत्मा को जानना होगा। अपने और पराए का अंतर जानना होगा। ज्ञानी कहते हैं आत्मा अपनी है और शरीर पराया है। जिस दिन इस सत्य को जान और मान लेंगे निश्चित रूप से आत्मा का कल्याण हो जायेगा। आत्मा के पग पग पर भूल भुलैया है जो हमे संसार की राह में ले जाकर भटका देता है। संसार का मोह हमे पथभ्रष्ट बना देता है और संसार के चक्कर में फंसकर पथिक बदनाम होता है।
समकित अर्थात जो चीज
जैसा है उसे वैसा ही स्वीकार करना। जिस प्रकार हंस की दृष्टि जल और दूध का मिश्रण
होने पर भी केवल दूध में रहता है इसलिए उसे नीर क्षीर विवेकी भी कहते है। ठीक इसी
प्रकार अन्यत्व भावना होती है। इस भावना में हम मानते है कि हमारी आत्मा और हमारा
शरीर साथ साथ रहता तो है लेकिन फिर भी इनका संबंध साथ नही होता। ज्ञानी कहते हैं
संसार की दृष्टि से शरीर और आत्मा तो साथ रहती है लेकिन अध्यात्म की दृष्टि से
दोनों अलग अलग होते है। यही अन्यत्व भावना कहलाता है। हम इस संसार के मोह में फंसकर पहले मस्त होते
हैं फिर पस्त होते हैं धीरे धीरे इस शरीर का अस्त हो जाता है और पर भव में पहुंचकर
दुखो से त्रस्त हो जाते हैं।
ज्ञानी कहते हैं जैसे श्रीखंड में मिठास चीनी के कारण और खटास दही के कारण होती है लेकिन हम इस स्वाद को श्रीखंड का स्वाद मान लेते है। यही अज्ञानता है। समकित हमे वस्तु की इसी वास्तविकता को बताता और समझाता है। इसी प्रकार शरीर सांसारिक है और आत्मा मुक्त । लेकिन जब तक दोनों साथ है आत्मा अपने मुक्त अवस्था को अर्थात सिद्ध अवस्था को प्राप्त नहीं कर सकती। संसार के ऐसे सभी साधन बेकार है जो हमे मंजिल तक नहीं पहुंचा सकता। इसी प्रकार वह ज्ञान भी बेकार है जो हमे हमारी आत्मा का ज्ञान नहीं करा सकता। संसार के इन विषयों में रमण करने के कारण हम अपनी आत्मा के गुणों का रसपान नही कर पाते है। जिस दिन इन विषयों से हमे छुटकारा मिल जाएगा उस दिन आत्मा के गुणों का रसपान भी कर पाएंगे।
ज्ञानी कहते हैं you are the best judge in your self अर्थात अपने लिए इस संसार में हम ही सबसे अच्छे जज हैं लेकिन अपना परिचय हम दूसरों से जानना चाहते हैं यही अज्ञानता है। जैसे कोई व्यक्ति ट्रेन में प्रथम श्रेणी की टिकट लेकर तृतीय श्रेणी में जाकर बैठ जाए तो हम उसे बुद्धू कहेंगे उसी प्रकार हमे ये प्रथम श्रेणी का मानव भव मिला है लेकिन हमारे कर्म तृतीय श्रेणी के जैसे हो तो हम क्या कहलाएंगे बुद्धू या बुद्धिमान। ज्ञानी कहते हैं हमारी यही अज्ञानता हमे संसार में भटकाने का काम करती है। और हम अज्ञानी बनकर इसमें ही अपना सुख खोजते हैं।