संजय छाजेड
धमतरी। परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म सा ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि मेरी आत्मा भी परमात्मा ही है, बस अंतर इतना है की उन्होंने जागकर अपनी आत्मा के गुणों को जगा लिया है और संसार के मोह में फंसकर मेरी आत्मा अभी तक सो रही है। सोने के साथ ही मानव जीवन के रूप में मिला अमूल्य समय भी खो रहा है। आज हम जिस प्रकार का जीवन जी रहे है उसे देखकर लगता है की हम जिसे अमृत मानकर पी रहे है वास्तव में वह आत्मा के लिए जहर है, इसका एक मात्र कारण है की मेरा पूरा समय चिंता में निकल जाता है। ज्ञानी भगवंत कहते है की आत्मा के वास्तविक स्वरूप के देखना है जानना है तो आत्मगुणो में रमण करना होगा। इस जीवन में अगर अमृत पीने की योग्यता मिली है तो पहले अमृत को पहचानना होगा। क्योंकि सही दवा अगर हमे स्वस्थ कर सकती है तो गलत दवा के उपयोग से हमारी स्तिथि और अधिक गंभीर भी हो सकती है। आत्मा के उचित विकास के लिए उचित पुरुषार्थ भी करना पड़ेगा। आज से अक्षयनिधि तप, समवशरण तप, विजयकषाय तप आदि तप के माध्यम से अनेक श्रावक श्राविकाएं जुड़ रही है। और अपने पापो का क्षय करने की ओर आगे बढ़ रहे है। हमे परमात्मा के ज्ञान के प्रकाश में अपने स्वत्व कोए आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जगाने का प्रयास करना है। अक्षयनिधी तप 20वे तीर्थंकर परमात्मा मुनीसुब्रत स्वामी के समय प्रारंभ हुआ था। यह तप हमे अक्षय निधि को प्रदान करने वाला है। संसार की प्रत्येक निधि समाप्त होने वाली है। जबकि इस तप से प्राप्त होने वाली निधि अक्षय है। इसके माध्यम से हम सिद्ध.बुद्ध बन सकते है। दूसरा तप है विजय कषाय तप। इस तप के माध्यम से अपने जीवन से कषाय को दूर करना है। चार प्रकार के कषाय क्रोध, मान, माया और लोभ है । जब तक जीवन में ये कषाय होते है तब तक आत्मा का विकास नहीं हो सकता। इसलिए विजय कषाय तप के माध्यम से अपने कषायो पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना है। एक पल का क्रोध हमारे वर्षो के पुरुषार्थ को समाप्त कर देता है। आजतक क्रोध ने कभी भी किसी का कुछ भी भला नही किया। फिर भी हम क्रोध करना नही छोड़ते। हमे जीवन में आनंद को प्राप्त करना है तो पहले क्रोध को छोडऩा पड़ेगा। अधिकार की इच्छा रखना ही दुख का कारण है। हम अपने जीवन रूपी रेल के डब्बे में गुरु रूपी इंजन के सहयोग से परमात्मा रूपी लक्ष्य को प्राप्त कर सकते है। आज हम जिनसे दूर है या जो हमसे दूर भागते है कही न कही इसका कारण पूर्व में किया गया क्रोध ही है। क्रोध हमे दूसरो से दूर करते करते परमात्मा से दूर कर देता है। अत: हमे प्रयास करना है की जीवन से हम क्रोध को दूर करे ताकि परमात्मा के निकट आ सके।