संजय छाजेड़
धमतरी | परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि सुख स्वयं से हो प्राप्त हो सकता है जबकि सुख हम बाहर ढूंढते रहते है। अपनी आत्मा को उस पथ पर आगे बढ़ाना है जहां से परमात्मा बनने का मार्ग प्रशस्त हो सके। परमात्मा के प्रति हमारे हृदय में वास्तविक प्रेम होना चाहिए।
जो राग से गाते है वो सबको भाते हैं किंतु जो भाव से गाते है जो परमात्मा को पाते है
प्रेम से जीने की पाठशाला है परमात्मा का मंदिर। दूसरो के गुण न देखना भी एक अवगुण है। संसार के हर वस्तु में कुछ न कुछ गुण है किंतु हम केवल दोष देखते है। गुणी का गुण देखना कोई बड़ी बात नही है, लेकिन किसी अवगुणी के गुण को देखना बड़ी बात है। ज्ञानी भगवंत कहते है
अरे दीवाने इस जगत की, चिंता में नही सार
तेरे ही मन दोष है, पहले इसे सुधार
अर्थात हम इस जगत अर्थात उस संसार की चिंता करते है संसार के दोष को दूर करने का प्रयास करते है जिसे हमारी कोई चिंता नहीं है। हमारी इस चिंता का कोई अर्थ नही है। जबकि हम अपने ही मन के दोष को दूर कर ले तो संसार से एक दोषी कम कर सकते है।
दूसरो के दोष को देखना भी स्वयं का एक दोष अर्थात अवगुण है। हम वर्तमान में जैसा करतेचाई भविष्य में वैसा ही प्राप्त होता है। इसलिए भविष्य में हम जो चाहते है वर्तमान में वैसा ही करना चाहिए। स्वयं को गुणी बनाने का सीधा और सरल माध्यम है दूसरो में गुण देखना। किंतु हम दूसरो के दोष देखकर भव भव के लिए पापों का बंधन कर लेते है। पाप का बाप है द्वेष।
दोषों से दोस्ती को दूर करके ही भगवान बन सकते है। सभी को मैत्री भाव देखना चाहिए। क्योंकि सच्ची मित्रता में सिर्फ देना ,देना और देना ही होता है। जबकि हम केवल लेना चाहते है ।अर्थात अपने विचारो में परिवर्तन लाना है।