परम पूज्य उपाध्याय प्रवर अध्यात्मयोगी महेंद्र सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य उपाध्याय प्रवर युवामनीषी स्वाध्याय प्रेमी मनीष सागर जी महाराज साहेब के सुशिष्य परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब परम पूज्य योगवर्धन जी महाराज साहेब श्री पार्श्वनाथ जिनालय इतवारी बाजार धमतरी में विराजमान है। आज दिनांक 23 जुलाई 2025 को परम पूज्य प्रशम सागर जी महाराज साहेब ने प्रवचन के माध्यम से फरमाया कि आगे प्यार पीछे खार, यही संसार का नियम है। हम स्वयं दूसरों के लिए कांटे बोने का काम करते है। लेकिन जब वही कांटा हमे चुभ जाता है तो हम ही आह भी करते है। प्यारा सा बचपन हमने खेलकूद में खो दिया। उसके बाद जब युवावस्था आया उसे भी मदमस्त होकर संसार के संताप में बर्बाद कर लिया। हे चेतन अब सोच बुढ़ापे में कौन तेरे साथ है। अंत में तेरे साथ क्या जाएगा। कई जन्मों के पुण्य के कारण ये मानव जन्म मिला था। उसे भी पाप कार्यों में हमने लिप्त रहकर व्यर्थ कर दिया। जीवन में जब तक सांस चलते रहा तब तक मेरा मेरा करते रहे। जबकि मरने के बाद कुछ भी साथ नहीं जाने वाला है सबकुछ यहीं छोड़कर जाना पड़ेगा।
मानव जीवन और जिनशासन दोनों एक साथ मिलना अत्यंत दुर्लभ है। परमात्मा के शासन का अर्थ धर्म की सामग्री या धर्म करने के साधन से है। जब हमने ये सुअवसर प्राप्त किया है तो इसका पूर्णतः सदुउपयोग करना है। आज हमारे पास परमात्मा तो प्रत्यक्ष नहीं है लेकिन उन्होंने जो कहा वो जिनवाणी के रूप में हमारे पास है। अब हमें परमात्मा के द्वारा बताई गई जीवन शैली के आधार पर जीवन व्यतीत करते हुए आत्मकल्याण के मार्ग पर बढ़ना है।
उत्तराध्ययन सूत्र का दूसरा अध्याय है परिषह प्रविभक्ति। हमें प्रयास करना है कि किसी भी प्रकार की कोई भी घटना जो जीवन में घटे उसे स्वीकार करना है। जीवन में सुख की चाह करने वाला जीव सहनशीलता को बढ़ाने का प्रयास करता है। जीवन में सुविधाएं तो बढ़ रही है लेकिन इसके कारण सहनशीलता कम होती जा रही है। परिणाम स्वरूप सुख कम होते जा रहा है। सुविधाभोगी जीव सुखी नहीं हो सकता। जीवन में सुखी होने का आसान सा मंत्र है जो प्राप्त है वही पर्याप्त है। जीवन में आवश्यकता पड़ने पर कुछ कहना भी पड़ता है और कभी कभी कुछ सहना भी पड़ता है। एक दूसरे की गलती को समझने, स्वीकारने और सुधारने का प्रयास ही अच्छी जीवन शैली है। ज्ञानी कहते है अनुकूल परिस्थिति में पद, पैसा, प्रतिष्ठा और परिवार साथ होते है जबकि प्रतिकूल परिस्थिति में कोई साथ नहीं देता।
22 प्रकार के परिषह होते है
पहला क्षुधा परिषह - क्षुधा अर्थात भूख। परमात्मा कहते है आत्मा के लिए आहार करना बीमारी है। क्योंकि आहार का संबंध शरीर से है आत्मा से नहीं। हमारा परम लक्ष्य तो परम सुख प्राप्त करना है। और उस लक्ष्य के लिए शरीर की जरूरत नहीं होती है। आहार संज्ञा के कारण ही हम चारों गति में घूमते रहते है। हमें इस पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करना है। स्वयं से एक प्रश्न पूछना है कि क्या हम जीने के लिए खाते है या खाने के लिए जीते है? जीवन निर्वाह के लिए , शरीर को चलाने के लिए जो मिल जाए उसे स्वीकार कर लेना चाहिए, तभी हम कह सकते है कि जीने के लिए खा रहे है। पाप के उदय में जीव नखरे नहीं करता और पुण्य के उदय को पचा नहीं पाता। यही कारण है कि पशुगति का जीव कभी नखरे नहीं करता। क्योंकि तिर्यच गति पाप के उदय के कारण ही मिलता है। संसार के परिभ्रमण का कारण ही आहार संज्ञा है।
दूसरा पिपासा परिषह - पिपासा अर्थात प्यास। पानी अर्थात प्यास पर विजय पाना। मोक्ष में केवल आत्मा जाती है शरीर नहीं। और ज्ञानी कहते है शरीर ही नहीं होगा तो प्यास भी नहीं होगा। शरीर का अर्थात चारोगति का त्याग कर आत्मा मोक्ष में जाए। वनस्पति काय के बाद सबसे अधिक जीव पानी में है। इसलिए प्यास पर विजय पाना चाहिए ताकि पानी के जीव की हिंसा के पाप से बच सके। कहते है जहां आसक्ति वहां उत्पत्ति।
18 पाप स्थानकों में तीसरा पाप है अदत्तादान। जब पुण्य का उदय आता है तो छप्पड़ फाड़ कर मिलता है और पाप का उदय थप्पड़ मार कर वापस ले लेता है। पुण्य पेड़ा देता है और पाप पीड़ा देता है। हम जीवन में चाहते तो पुण्य है लेकिन करते पाप का कार्य है। जब हमें सफलता में रुचि हो लेकिन पुरुषार्थ में रुचि न हो तो अदत्तादान अर्थात चोरी जीवन में स्थान बना लेता है। चोरी के पाप को रोकने के लिए जीव को पाप भीरू अर्थात पाप से डरने वाला होना चाहिए। हमें विश्वास होना चाहिए कि पुण्य से जो मिला वो आकर वापस जाएगा नहीं और जो पाप से मिला वो आकर भी टिकेगा नहीं।