कंकर पत्थर रूपी रत्नो के स्नेह में हम फंसे हुए हैं- परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा.

धमतरिहा के गोठ
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संजय छाजेड़ 

परम पूज्य विशुद्ध सागर जी म.सा. ने अपने आज के प्रवचन में फरमाया कि संसार के चक्कर में फंसकर न जाने हमे क्या हो गया है। जो नाशवान वस्तु है उससे हमे स्नेह हो गया है। और आत्मा जो  शाश्वत है उससे आजतक स्नेह नही हो पाया। कंकर पत्थर रूपी रत्नो के स्नेह में हम फंसे हुए हैं। किंतु मानव जीवन रूपी पारसमणि जो हमे मिला है उसका ज्ञान ही नही है। इस मानव भव को पाने के लिए देवता भी तरसते है। ऐसे मानव भव रूपी अमूल्य भव का मूल्य हम समझ नही पा रहे है। पारसमणि को न पहचान कर उसकी सहायता से पक्षी उड़ाने वाले को जैसे हम मूर्ख या अज्ञानी कहेंगे। उसी प्रकार हम भी अज्ञानी ही है जो मानव भव रूपी पारसमणि को पहचान नहीं पा रहे है। जैसे एक मकड़ी स्वयं के बनाए जाल अर्थात घर के मोह में ही फंस जाता है उसी प्रकार हमारा भी जीवन हो गया है। ज्ञानी भगवंत कहते है हमे हर क्षण को अपना अंतिम क्षण मानकर अच्छे कार्य करना चाहिए। ज्ञानी कहते है अभी भी समय है अपने अंतर्मन को खोलकर आत्मा के विकास के लिए पुरुषार्थ कर लो। आज हमे अपने भूतकाल में जाकर भविष्य की तैयारी का प्रयास करना है। 

हमे अपने भूतकाल के कार्यों पर विचार करना है। जैसे हम व्यापार करते है लेकिन उसका हिसाब नही रखते है तो हमे अपने व्यापार के वास्तविक स्थिति की जानकारी नही हो पाती है। उसी प्रकार हम जो भी कार्य करते है उसके माध्यम से आज हमे अपने आत्मा की वास्तविक स्थिति की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करना है। ज्यादा होना सुख की परिभाषा कभी नही हो सकता। संसार के कार्यों के लिए सीए का अर्थ चार्टर अकाउंटेंट होता है। किंतु ज्ञानी भगवंत कहते है हमे अपनी आत्मा के लिए सीए अर्थात चारित्र आत्मा बनना है। हम जीवन में हर जगह समझौता करते है लेकिन यही समझौता दुख का कारण बन जाता है। क्योंकि हम जो चाहते है वो मिलता नही है और जो मिलता है वो हम चाहते नही। अर्थात हमे अपने कर्मो के अनुसार ही फल मिलता है अपनी इच्छा के अनुसार नही। हमे वर्तमान में जो कुछ भी मिला है वो हमारे भूतकाल के कर्मो का फल है। वर्तमान में हम जैसा पुरुषार्थ कर रहे है वैसा भविष्य में फल प्राप्त होगा। इसलिए हमेशा अपने भविष्य को ध्यान में रखते हुए वर्तमान में कर्म करना चाहिए। संसार में किसी भी कार्य के लिए हम सहयोगी बना सकते है। लेकिन  आत्मा का कोई सहयोगी नही होता। हमारे कर्मो का फल केवल हमारी आत्मा को ही मिलेगा। इसमें  कोई सहयोगी नही हो सकता है। ज्ञानी भगवंत कहते है जो मन के सहारे जीते है वो मारे मारे जीते है और जो मन को मार कर जीते है वो आत्मविकास का रस पीते है। आत्मा की चिंता न करने वाला अपना अमूल्य जीवन बर्बाद कर लेता है। हम अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए जितना भी दूसरो से लेते है वो सब हमारा दायित्व है। अर्थात इनसे हमने जो भी लिया है उन्हे वापस लौटाना होगा। उसी प्रकार आत्मा का भी कुछ दायित्व है। जिसका अपने द्वारा किए गए कर्मो के फल के रूप में भुगतान करना पड़ता है। आत्मा के विकास के लिए सुदेव, सुगुरू और सुधर्म को संपत्ति मानना चाहिए। क्योंकि इनके माध्यम से ही आत्मा का विकास हो सकता है। ज्ञानी भगवंत कहते है हमने इस जीवन में साधन तो बहुत प्राप्त कर लिया किंतु उससे सुख नही मिल पाया।

हमने संपत्ति बहुत कमा लिया लेकिन उससे शांति नही मिल पाई। हमने अपने परिश्रम से सफलता भी प्राप्त कर ली। लेकिन उससे जीवन में आनंद नही आ पाया। हमे एक अच्छा परिवार मिल गया लेकिन प्रसन्नता नही मिला। हमने संसार के बहुत सारे पद प्राप्त कर लिए लेकिन जब तक इन पदों को नही छोड़ेंगे तब तक परमपद अर्थात मोक्ष का पद नही मिल सकता। अब हमारा पुरुषार्थ अपने आत्मोत्थान के लिए होना चाहिए हमे ऐसा प्रयास करना है। रावण जैसा महाज्ञानी भी एक बार अपने भाव को बिगाड़ कर अपना जीवन इतना खराब कर लेता है की हजारों वर्ष बाद आज भी हर चौक चौराहे पर असत्य और पाप के प्रतीक के रूप में उसका पुतला जलाया जाता है। तो विचार कीजिए हम तो हर क्षण अपना भाव बिगाड़ते रहते है। हमे इसका क्या परिणाम मिलेगा। हमे सबसे अधिक निंदा रस में आनंद मिलता है। लेकिन विचार करना है जब उसका फल मिलेगा तब क्या वैसा ही आनंद आएगा? हमे हमेशा दूसरो की निंदा करने से बचना चाहिए। हम संसार के परिग्रह के संभालने में अपना पूरा जीवन लगा देते हैं अब आत्मा को संभालने में अपना जीवन लगाना है। अगर आत्मा का विकास करना है आत्मा में लगे कर्मो को दूर करना है तो इसका कुछ माध्यम है:- 

 तप - तप के माध्यम से शरीर को तपाकर आत्मा को शांत प्रशांत बनाने का प्रयास करना है।


दान - दान के माध्यम से किसी को तन, मन से सुखी करने का प्रयास करना चाहिए। दान में शक्ति और भक्ति दोनो देखी जाती है। दान कभी भी दिखावा करके नही करना चाहिए। दान छपा कर नही छिपाकर करना चाहिए। 


भक्ति - देव, गुरु और धर्म की भक्ति करके आत्मा के कर्म मैल को साफ कर सकते है। 

चारित्र धर्म की आराधना - इसके माध्यम से कुछ समय के लिए ही सही चारित्र धर्म का पालन करके स्वयं की आत्मा में लगे कर्म मल को साफ करके उसे निर्मल करना है।



 

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